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अध्यात्म-दर्शन
मरण का चक्कर मिटा नही । केवल एक खड्डे में में निकल कर दूसरे खड़े मे पडने सरीखी वात हुई । यो तो व्यवहारचारिग्रपालक साधक ने मनपर्दत जितने रजोहरण-मुखवस्त्रिका, पात्र आदि ढेरो अपना लिए, परन्तु उससे कोई वास्तविक लाभ-जन्ममरण से मुक्तिल्प फल नहीं मिला। इसीलिए कहा गया-"काई न आवे हाय रे" व्यवहारनय की दृष्टि में चाहे जितनी क्रिया की जाय, आत्मसाक्षात्कार नहीं होता, कुछ पल्ले नहीं पडता । मलबत्ता, उसे सातारिक लाभ तो मिलता है, अच्छी गति और सुखनुविधाएं मिल जाती हैं, पर उसे जो पारमार्थिक लाम मिलना चाहिए, उसके अनुपात में तो यह लाभ बिलकुल नगप्प है। कोई भी दीर्घद्रप्ता मनुप्य ऐसे तुच्छ लाभ के लिए काम नहीं करता, वह तो किनी म्थायी लाभ के लिए ही प्रयास करता है। जैसे किसी मजदूर को सारे दिन मेहनत करने पर एक पंता मिले, वैने ही वात सारी जिंदगीभर विना समझ के क्रिया करने की है। इस तरह तो एक नही, अनेकों जिदगियां बीत जाँच, फिर भी कुछ वास्तविक लाभ नहीं होता। यही कारण है कि न्यवहार के आश्रय से लदय-शुद्ध वात्मा का साक्षात्कारप्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। क्योकि जब तक मात्मा के साथ कर्म का एक भी परमाणु होगा, तब तक आत्मा संसारी कहलाएगा, इन परमार्थ को लक्ष्य में रख कर कहा गया है, 'व्यवहारे लख दोहिलो' । नितर्प यह है कि व्यवहार से द्विधाभाव मिटता नहीं लक्ष्य-आत्मा का लक्ष्य पाना कठिन हो जाता है । जवकि शुद्धनय=निश्चयनय की स्थापना को स्वीकार करने पर किसी प्रकार की दुविधा नहीं रहती, आत्मदशा-स्वस्वरूप का मेवन करने से आत्मा का नाक्षावार हो जाता है, आत्मा कर्मपरमाणु से रहित हो कर सदा के लिए शुद्ध वन जाता है। हूँ तपन या भिन्नत्व जरा भी नहीं रहता, जहत या एकत्व का अनुभव होता है। फिर यह सवाल नहीं रहता कि पौदगलिक भाव और आत्मिक भाव दोनो मे मे किमको स्वीकार किया जाय । निश्चयनय के आश्रय मे ही माधक मोक्ष के समीप हो सकता है।
इस गाया के परमार्थ पर विचार करने वाले मुमुलुओ को आगम-प्रतिपादित धर्म-शुक्लध्यान पर विचार करना चाहिए। शुल्लध्यान के चतुर्थ भेद के विषय में कहा है-'समुच्छित्रक्रियानिवृत्ति' अर्थात् जब 'आत्मा केवल