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अध्यात्म-दर्शन
इससे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि कोई भी जीव व्यवहारमार्ग में क्रमशः ही आगे बढ़ सकता है । किनी जीव की अनादिका तीन तयाभव्यता ऐसी होती है कि व्यवहारनयसिद्ध माग मे उसे बहुत ही कम चलना परता है, वह सीधा निश्चयनयसिद्ध मार्ग पर चढ जाता है और तुरन्त मोक्ष में चला जाता है। जैसे-मरदेवी माता । भरतवक्री आदि ने तो पूर्वभव में सवविरतिचारित्र की आराधना की हुई थी, इसलिए वे नो घ्यवहारमार्ग से गुजरते-गुजरते ही निश्चय-मिद्ध लाचरण के मार्ग पर आ कर केवलज्ञान प्राप्त कर सके हैं। मगर वीच की भूमिकाएं पार किय विना नीचे निश्चयनय की भूलिका पर जास्तु होने वाले जीव बहुत ही थोडे होते हैं। अधिकमज्यक जीवो की तथाभव्यता क्रमश चढाने की होती है, इसलिए अपुनर्वन्धकभाव की अवस्था में ले कर । ठे सर्वविरति-अवस्था तक में चलने वाले बहुत जीव होते हैं। प्रत्येक ग्राहक । प्रत्येक किस्म के माल को नही खरीदना, परन्तु दुकानदार को तो सभी किस्म का माल रखना पड़ता है। इसी प्रकार घम-(शासन) तीर्य को भी भिन्न भिन्न कोटि के धर्मनिष्ठ जीवो को लन्य में रख कर आत्म-विकाम के छोटे-बडे तमाम साधनो का प्रचार और सुविधा जुटानी पड़ती है।
इसीलिए जिनशासन मे व्यवहार और निश्चय दोनो नयो की दृष्टि से पहले से ले कर चौदहवें गुणस्थान तक के जीवो को स्थान है। गौतमादि गणधर भी मघशासन के अनुशासन में रहते थे । जो व्यक्ति नीची भूमिका का हो, उसे का निश्चयनय की ऊँची भूमिका की बात कह कर हटाना ठीक नहीं और न निश्चय की उच्चभूमिका की योग्यता हो, उसे नीची भूमिका पर आना है। परन्तु उच्चभूमिका वाले मे नोची भूमिका वाले जितनी चारित्र की मात्रा (नैतिक भूमिका) तो होनी ही चाहिए। किन्तु नीची भूमिका वाले उच्च- । भूमिका के अयोग्य व्यक्ति मे बुद्धिभेद पैदा करके इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट करना विलकुल अनुचित है, पाप है । यही निश्चय और व्यवहार का रहस्य
सारांश इस प्रकार इस स्तुति मे निश्चय और व्यवहार दोनो नयो की दृष्टि से : 'परमात्मा के परमधर्म की जिज्ञासा प्रकट की है। परन्तु आगे चल कर यह बताया गया है कि द्रव्यदृष्टि से आत्मानुभव एक वस्तु है, इसी आत्मा के अनन्त :