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अध्याग-दर्शन
अर्थ उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्टि से आत्मा को देखें तो उसके लक्ष्य मे न आ सकें, ऐसे (अलक्ष्य) अनेक स्वरूप प्रतीत होते हैं, क्योंकि आत्मा के अनन्त गुण है । द्रव्य-पर्याय के भेदरहित (अभेद) रूप में देखें तो गवं विकल्पो का विलय हो कर आत्मा का ज्ञानादिक भेदरहित, एक, असुण्ड, शुद्ध, निलेप, निरंजन, चैतन्य रूपमे अनुमत्र होता है। आत्ता के सिवाय दूसरा कुछ भी द्वतरूप भासित नहीं होना, ऐसे आत्मा का शान स्मन र निविकर परस
पीजिए।
भाप्य
पर्यायदृष्टि से अनेक आत्मा, द्रव्यदृष्टि से एक पूर्वोक्त गाथा मे सोने का दृष्टान्त देकर द्रव्याथिक और पर्याथिक नय का तत्व समझा गया है । उमी वात को अत्मा पर घटित किया है, जैसे सोने के अनेक प्रकार (तर गें) होते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से अलक्ष्य (अरूप) आत्मा के अनेक तरंगे =पर्याये होती हैं । सामान्य उपयोग से वह जातियो को देखता है। उनमे वह तन्मय हो जाता है, वही उमका दर्शन वन जाता है। उसमे वह मनुष्यो, जानवरो या पक्षियो को एव सुम्बु-दुख को सामान्य प्रकार से देखता है । फिर जरा ज्ञान-उपयोग होता है, तब वह अधिक व्योरेवार तथ्यो को देखता है। मनुष्य के नाम, उनका रग, उनकी जातियाँ और अनेक विवरण उसके जानने में आता है । यह सब ज्ञान का परिणाम है । इसी प्रकार चारित्र मे उपयोग लगाता है, उनकी चर्चा करता दिखाई देता है, वह सामायिक मे स्थिर होता है तो उसमे तथा यथाख्यात आदि चारित्र मे रमण करता दिखाई देता है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र की विविधता मे वह जैसा उपयोग लगाता है, वैसा उसका पर्याय दिखाई देता है । यानी आत्मा जव ज्ञान क्रिया मे होता है, तब वह ज्ञानात्मा है, जब दर्शनक्रिया मे होता है, तब वह दर्शनात्मा है और जब वह चारित्रक्रिया मे होता है, तब चारित्रात्मा है। उसी प्रकार आत्मा का शुद्ध पर्याय सम्यग्ज्ञान-दर्शन आदि हैं। उनके क्रियाकारण ही भले ही भिन्न-भिन्न प्रतीत हो, परन्तु एक ही शुद्ध आत्मद्रव्य का कार्य तो एक ही सिद्ध होता है।