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परमात्मा के शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
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देते, लेकिन प्रभु द्वारा उक्त शान्ति का मार्ग ठोस, निर्विघ्न, स्थायी और अद्वितीय है। इसलिए अब मुझे इतनी तमल्ली हो चुकी कि जो काम कई वर्षों मे क्या, कई जन्मो मे नही हो पाए, वे आपसे शान्तिमार्ग सुन कर सिद्ध हो गए । एक अटपटा प्रश्न हल हो जाने से कई कार्य हो जाते हैं, इसी प्रकार एक बडी उलझन मिट जाने से मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गए। मैं कृतकृत्य हो गया। मैं निहाल हो गया।' यह सव भक्ति की भापा मे निकाले हुए हर्षोद्गार हैं । इसी कारण 'ताहरे दरिसणे निस्तों, मुझ सिध्या सवि काम रे' इन दोनो वाक्यो मे भविष्यकालीन प्रयोग के बदले भूतकालीन प्रयोग हुए हैं। मैं ससार-सागर से पार हो जाऊँगा और मेरे सब काम सिद्ध होगे' ये ही उन दोनो के उपचार से अर्थ हैं।
पहले आत्मभाव को ही एकमात्र आधार मान कर महाशान्ति का एक मात्र कारण उसी को ही मानना, उसी में रमण करना और उसी के गुणो को प्रगट करना बताया है, जव साधक ने इस बात को हृदयगम कर लिया और निश्चयदृष्टि से एकमात्र शुद्ध आत्मा ही आराध्य रहा, यह याद आते ही अत्यन्त प्रसन्नता से वह झूम उठा और अगली गाथा मे उसकी वाणी फूट पडी
अहो अहो हु मुज ने कहूँ, नमो मुज नमो मुज रे। अमित फल दान दातारनी, जेहने भेंट थई तुजरे ॥
शान्ति ॥१३॥
अर्थ ओहो । मेरे अतहदय मे शान्ति का अपूर्वमत्र-'आत्माराधन' जम गया, अत अब मैं अपनी अन्तरआत्मा से कहता हूँ, मुझ आत्मा को नमस्कार है, मुझे नमस्कार है, जिसे आप सरीखे असीम फल (नाश्वत शान्तिरूप फल) के दाता से भेंट हुई।
भाष्य
आत्मा को आत्मा के द्वारा नमन जब मनुष्य को किसी अलभ्य या दुर्लभ वस्तु के लिए जगह-जगह भटकना पडता है या जगह-जगह खुशामदी या जैसे तैसे व्यक्ति को वन्दन-नमन करना पडता है, तो उसकी आत्मा का स्वत्व, तेज या स्वबल मर जाता है, किन्तु अव जवकि आपके शान्तिदर्शन को पा कर म धन्य हो उठा। मेरे जन्म-जन्म के