________________
वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
३७७
कोधादि धर्म) हैं ? अथवा निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से जब हम इम प्रश्न पर विचार करते है तो श्रीआनन्दघनजी वीतराग-परमात्मा के सामने सीधा ही प्रश्न पूछते हैं-प्रभो ! मैं तो अज्ञान हूं, ससार मे फंसा हुआ हूँ, मैं स्पष्टरूप से जान नहीं सकता कि आपका अपना (आत्मा का) धर्म कौन-सा है ? और परकीय धर्म कौन-सा है ? अथवा निश्चयदृष्टि से आत्मा का शुद्ध धर्म कौन-सा है, व्यवहार दृष्टि से कौन-सा धर्म है ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने भगवान से प्रार्थना है कि 'स्वपरस-समय समझावीए' प्रभो | आपकी महिमा अपार है। आप अणिमा-महिमा आदि योगसिद्धियो से सम्पन्न हैं, आप महान त्यागीमहनीय-पूजनीय पुरप हैं । अत आप मुझ पर कृपा करके समझाइए कि स्वधर्म क्या है, परधर्म क्या है ? अथवा स्वसमय= स्वसिद्धान्त और परसमय पर सिद्धान्त (पूर्वोक्त अर्थों के अनुसार) क्या है ? अथवा इन दो वाक्यो को एक करके ऐसा अर्थ भी घटित हो सकता है कि-'महिमामय प्रभो । स्वसमयपरसमय की दृष्टि से यह समझाइए कि वीतराग परमात्मा का धर्म कौन-सा है ?
- जैनधर्म मे तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रश्नोत्तर-शैली प्रसिद्ध है। भगवतीसूत्र मे गणधर गौतम द्वारा महावीर से पूछे गये ३६ हजार प्रश्न और उत्तर है। अगली गाथा. मे इसी प्रश्न का समाधान किया जाता है- .
शुद्धातम अनुभव सदा, स्वसमय एह विलास रे। परबड़ी छांहडी जे पड़े, ते परसमय-निवास रे॥धरम०॥२॥
अर्थ जहां पर्यायाथिक नय की गौण रखकर द्रव्याथिक नय की मुख्यता से शुद्ध आत्मा का सदा साक्षात् अनुभव हो, वहा स्वसमय (मेरा धर्म) है । वहा स्वात्मा का ही विलास (स्वात्मरमणता) है । जहां कभी-कभी वार त्यौहार पर देर से छाया पडती हो, उसका आत्मानुमव हो, वहां परसमय (मेरे सिवाय पर का धर्म) है, अथवा पर= आत्मा से पर अनात्मभाव वाली - बहिरात्मभाव वाली जो आत्मा की बड़ी छायामात्र जिन जिन ग्रन्थो मे पडती है, वहा परसमय =अन्यतीर्थीय सिद्धान्तो का निवासस्थान हे । अथवा पर की - अन्य आत्मा की या दूसरे द्रव्यो को, द्रव्य के सिवाय गुणो या पर्यायो की प्रतिच्छाया जहाँ जहा पड़ती है, वहां वहां परसमय का रथानक है । अथवा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय