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अध्यात्म-दर्शन
धर्म का प्रधान अग समझा जाता है, उसी धर्म के अनुयायी-गण सम्प्रदायभेद, परम्पराभेद, या आचार-विवार के जरा से भेद को लेकर दूसरे में लाने सगडने और गालीगलौज करने लग जाते है, एकात आग्रही एव आचार-विचार मे गया असहिष्णु बन कर एक दूसरे पर मिथ्या-आरोप लगाने लगते हैं, मरलना को ताक में रख कर कुटिल राजनीति का आश्रय ले लेने है, समना के बदले जाति, वर्ग, रग, राष्ट्र, सम्प्रदाय आदि के नाम पर वे विषमता फैलाने लगते हैं, जराजरा सी बात से उनके व पाय और गग-द्वेष का पारा चढ जाता है, वे स्वय विषम बन जाते है, उनके वीतराग-विज्ञान का मिहान्त उम ममय न जाने कहां गायब हो जाता है ? उग समय ये आत्मा और शरीर पे भेद-विज्ञान के वदले शरीर व शरीर मे सम्बन्धित कपायो व राग-द्वेप आदि विकारो को ही मानो अपने मान कर अपना लेते हैं । ऐगे गोरखधे मे माधारण व्यक्तियो को पता ही नहीं चलता कि कौन-सा वीतराग-परमात्मा का धर्म है, कौन सा पर धर्म है ? बहुधा धर्म के नाम में भक्तिवाद के नशे मे या सम्प्रदायवाद की धुन मे अथ घा गुरु-परम्परा की ओट में आमजनता विविध आडम्बरो की चकाचोध मे सच्चे मार्ग से भटक जाती है। वह वई दफा ऐसा गलत रास्ता अपना वैठती है, जिसे बाद मे हुडाना अत्यन्त कटिन हो जाता है। और इनके जैसे अन्य कारणो को देख कर श्रीआनन्दघनजी स्वय सच्चे धर्म की जिज्ञासा को ले कर वीतराग-परमात्मा के गामने उपस्थित हुए हैं कि वीतरान-परमात्मा (धोमरहनाथ) का उत्कृष्ट और यथार्थ धर्म कौन-सा है ? कौन-सा यथार्य धर्म है, जो जीवन और जगत् के लिए परमकल्याणकारी, आत्मविकासक, स्वहितकर, चार गतियो और ८४ लक्ष जीवयोनियो गे छुटकारा दिलाने वाला, व कर्मों को निर्मूल करने में समर्थ है ?
धर्म को जिज्ञासा का दूसरा पहलू धर्म के विपय मे जिज्ञासा का एक और पहलू है । वह यह है कि आत्मा के लिए कौन-मा धर्न उत्कृष्ट है, और कौन-मा निकृष्ट है ? कौन-सा आत्मा का धर्म है, और कौन-सा अनात्मा= आत्मा से पर मन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा पुद्गलो का धर्म है ? अथवा कौन-रो आत्मा के निखालम धर्म' हैं यानी आत्मा के अनुजीवी (निजी) गुण (धर्म) है और कौन-से आत्मा मे पर के, किन्तु आत्मा के साथ संयोग-सम्बन्ध से सश्लिष्ट होने से आत्मा के वैभाविक गुण (काम