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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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बूटी के समान सयमायु की वृद्धि करने वाला है, चारित्ररूपी प्राणो को धारण कर सकता है ? दुर्गति मे गिरती हुई आत्मा को बचा सकता है, उत्तम सुख मे या सुगति मे आत्मा को पहुंचा सकता है ? क्योकि जब तक धर्म की यथार्थ पहिचान न हो, जीवनयात्रा मे धर्म के उपयोग की सही जानकारी न हो, वीतराग-परमात्मा के द्वारा बनाये हुए या पाले हुए धर्म का यथार्थ ज्ञान न हो, तव तक धर्म का शुद्ध आचरण नहीं हो सकता । जिस व्यक्ति को धर्म का शुद्ध ज्ञान नही होगा, वह धर्म के नाम पर विविध धर्म-सम्प्रदायो मे प्रचलित युगवाह्य क्रियाकाडो, कुरूढिपोपक आचारो, विकासघातक परम्पराओ, दम्भ. वर्द्धक विधि-विधानो, हानिकारक कुरूढियो और समाज की अकल्याणकारी कुप्रथाओ को ही प्राय धर्म समझ कर उन्ही का पालन करने मे धर्मपालन की इतिश्री समझ लेगा। ऐसी स्थिति में वह यथार्थ धर्म को भी सीधे रूप मे न पकड कर उलटे रूप मे ही पकडेगा, जिससे विकास के बदले उसकी आत्मा का पतन एव ह्रास ही अधिक होगा । ऐसे व्यक्ति की स्थिति भ महावीर की दृष्टि मे विपरीत हो जाती है-'जिस प्रकार कोई कालकूट विप को पी कर जी नही सकता, उलटे रूप में पकडा हा शस्त्र उसे पकडने वाले को ही मार डालता है, किसी को वैताल लग जाने पर वह उसके प्राणो का नाश कर डालता है, वैसे ही विपयो या विषमरूप से युक्त धर्म को स्वीकार कर लेने पर वह आत्मा का विनाश कर डालता है।"१ कई बार यह देखा जाता है कि गुरुपरम्परा या सम्प्रदायपरम्परा से प्रचलित किसी रीति-रिवाज या व्यवहार अथवा घातक गतानुगतिक प्रथा को ही धर्म समझा जाता है। जैसे अमुक समाज मे शराव पीना, मासाहार करना, स्त्रियो का पर्दा रखना, अमुक ढग से चौकेबाजी करना, जनेऊ या चोटी रखना, अमुक तरह का तिलक लगाना आदि को धर्म समझा जाता है, जयवा अमुक मनमाने आचार-विचार को या विकासघातक क्रियाकाण्डो के पालन को धर्म समझा जाता है। यह तो दूर रहा, जो सच्चा और व्यापक धर्म माना जाता है. वीतरागता, अनेकान्त, समता एव सरलता को
१-विसतु पीय जह कालकूड, हणाइ सत्य जह कुग्गहीय । एसो वि धम्मो विसओ (मो) ववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ।
-उत्तराध्ययन० अ० २० गा ४४