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मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
को सर्वप्रथम साध लिया जाय तो ये सभी सध सकते है, इसी दृष्टि से कु थुनाथ परमात्मा (जो मनोविजेता हो गए ये, इसलिए रागद्वेष, कपाय या तज्जनित वन्ध का नामोनिशान नही था) के समक्ष श्रीआनन्दघनजी प्रार्थना करते है-"प्रभो! यह मन इतना चचल है कि यह किसी भी तरह से पकड मे नहीं आता। मेरी तमाम की-कराई वर्षों की साधना को क्षणभर मे मटियामेट कर देता है। मन मे शान्ति हो, तभी आमा मे शान्ति हो सकती है। मन पर विजन हो, तभी इन्द्रियो पर विजय हो सकती है, इन्द्रियाँ जीत लेने पर कर्मो का क्षय हो सकता है और कर्प नष्ट होते ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, आत्मा परमात्मा वन कर सिद्ध परमात्मा के साथ एकरूप हो सकती है, परमशान्ति के धाम मे आत्मा पहुँच सकती है। इसलिए मन का वशीकरण करना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु यह वश में ही नहीं होता, किसी भी तरह।" सैद्धान्तिक दृष्टि से विवार करते हैं तो आत्मा के पतन का मुख्य कारण मोहनीय कर्मों का उदय होता है । परन्तु कर्मवन्धन का कारण कपाय है । उस कषाय की चाबी मन के हाथ मे है । २'कपायो या विपयो के साथ मन का योग होने पर जीव कर्मयोग्य पुद्गलो का ग्रहण करता है, तभी कर्मवन्ध होता है।' इसीलिए कहा है कि मन चाहे तो कषायो से आत्मा को बाँध भी सकता है और मन चाहे तो कवायो से मुक्त भी करा (छुडा) सकता है।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर से बडे भद्र, शान्त, उत्तम और ध्यानक्रिया में लीन उच्च साधक दिखाई देते थे, किन्तु उनके मन में जो भयकर युद्ध का दौर चल रहा था, जिसके कारण विकट मोहनीयकर्मों के वन्धन का चलचित्र तेजी से घूम रहा था, और जिस समय सम्राट् श्रेणिक विम्बसार ने भ० महावीर से उस उत्तम मुनिवर की आय के बारे में प्रश्न किया और उसका उत्तर जब उन्हे सातवी नरक में गमन का मिला तो वह आश्चर्य मे डब
१ कहा भी है
'मणमरणेदिय मरण, इदियमरणे मरति कम्माइ ।
कम्ममरणेण मोक्खो, तम्हा य मण वशीकरण ।' २. 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त, स बन्ध.'