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अध्यात्म-दर्शन
करता है, विविध निधाएँ करता है, नान वधारता है और यह गमन लेता है। कि मैं महान् पुरुष हो गया, जनता भी उगे महायुग्ण ममलने लगती है। किन्तु वाहर मे महापुरुष दिखाई देता हुआ भी मन में यह बटन ही निकट दशा में होता है। उसका मन इतने निम्नम्तर का हो जाता है कि पोई वपना भी नही कर सकता कि वह इतना कापायाविष्ट या इन्द्रिय-विषयामत कांसे हो गया?
वस्तुत बात यह है कि पहले गुणस्थानक में रहा हुआ चरमावर्ती पानी सम्यक्त्व प्राप्त करने की भूमिका तक पहुँचा हुआ जीव, अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणो को करता है और इससे प्रथम ममय मे उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसके बाद सातवें गुणस्थान के अन्त करने पर चारितमोहनीय कर्म के उपगम करने की शुरूवात होती है। इस प्रकार उशम करते-करते वह दशवै गुणम्यान के मिरे तक आ कर तमाम मोहनीय कर्मों के उपशान्त हो जाते ही उपशान्तमोह नामक ११ वें गुणस्यान को प्राप्त करता है। जो प्रवल (मनोबल) आत्मा होती है वह तो वें गुणस्यान से सीपी क्षपाणी प्रारम्भ करती है, जो नीचे केवलज्ञान प्राप्त करके (क्षीणमोह नामक १२ ३ गुणस्थान पर पहुंच कर) नीधी मोक्ष पहुंच जाती है, परन्तु निर्वल (मनोवल मे मन्द) वात्मा उपगमश्रेणी का प्रारम्भ करती है तो वह ११ वे गुणस्यान तक पहुंच कर अवश्य ही नीचे गिर जाती है। क्योकि ११ वें गुगम्यान में मोहनीय कर्म का उपशम होता है, क्षय नही। उपशम अन्तर्मुहूतं से अधिक नहीं टिकता। कारण यह है कि नीचे दबा हुआ मल (मोहनीय कर्मजनित कपायादि) ऊपर आए बिना रहता नहीं। उसके ऊपर (उदय मे) आते ही आत्मा आध्यात्मिक भूमिका पर से क्रमश नीचे (छठे, पाँचवें, चौथे गुणस्थान पर अथवा चाय से दूसरे हो कर पहले तक आ जाती है, अथवा दशवे, नौवें यो क्रमश नीचे) उतर जाती है। इस प्रकार उच्चभूमिका से नीची भूमिका तक पतन होने मे मुख्य कारण तो मोहनीय कर्मों का उदय है। इसमे व्यवहारदृष्टि से जीव जब तक ममारी है, तव तक अशुद्ध आत्मा (योग आत्मा और कपायात्मा) मानी जाती है, योग और कपाय की क्रिया मे मोहनीय कर्मबन्धन होता है। खासतौर से मोहनीयकर्म का उदय अपना प्रभाव मन द्वारा ही (व्यवहारदृष्टि से) बताता है। इसलिए मन