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मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
वश मे होना दुप्कर है। इसी बात को इस गाथा मे प्रस्तुत की गई है। मन की थाह पाना अत्यन्त कठिन कार्य है।
अगर मन को ठग, लुच्चा या धूर्त कहूं तो उस पर यह सहसा आरोपण उचित न होगा, क्योकि स्यूल आँखो से तो यह किसी को ठगता देखा नही गया, इसलिए इसे लुच्चा, लफगा या ठग कसे कहा जा सकता है ? किसी को आँखो से भलीभाँति देखे बिना ही उस पर मिय्या-आरोप लगाना नही ; क्योकि खुल्ले रूप मे तो सभी काम इन्द्रियाँ ही करती हैं, मन खुल्ले रूप में कोई काम करता देखा नही जाता । अत मन को ठगाई करता प्रत्यक्ष न देख लू, तव तक इस पर झूठा इल्जाम कैसे लगाया जाय ? यह ऐमी सिफ्त से पर्दे के पीछे काम करता है कि इसे ठग नह। कहा जा सकता ।
तव यह प्रश्न उठता है कि जब मन ठग नहीं है, तव इसे साहूकार कहना चाहिए, क्योकि ठग और साहूकार के बीच मे और कोई विकल्प नही है । इसके उत्तर मे कहते हैं-शाहकार पण नाहि । यानी इस मन को साहूकार, ईमानदार सख्स भी नहीं कहा जा सकता। ईमानदार साहूकार तो इसे तव कहा जाय, जब यह प्रामाणिक साहूकार की तरह एक बात पर दृढ रहे । पर मन अपनी बात का धनी नहीं है। एक क्षण मे तो यह फूल के घोडे पर बैठ कर महाज्ञानी महात्मा बन जाता है, और दूसरे ही क्षण अधम मे अधम विकल्प कर 'बैठता है । तथा जो साहूकार होता है, वह उलटे रास्ते मे या खतरनाक स्थिति मे पडे हुए को वचा लेता है , परन्तु मन के कारनामो को देखते हुए इसे ऐसा साहूकार नही कहा जा सकता। वेचारे नेतनराज के शुभ अध्यवसायरूप और श्रेष्ठ पुरुपो की सगति से पाये हुए जप-तप-ज्ञान भक्ति-रूप खजाने को यह ठग मन लूट लेता है या चौपट कर देता है । बेचारे जीव की पुण्यरूपी पूंजी को यह 'मन सफाचट कर देता है । वताइए, ऐसी हालत मे विश्वासघात करने वाले तथा अदर ही अदर इस प्रकार की ठगी करने वाले मन को माहकार कहने का साहम भी कंसे हो सकता है ?
यो देखा जाय तो मन का स्थान हृदय (अन्त करण) में है। दूसरी तरफ से देखें तो यह सारे शरीर में व्यापक है । इन्द्रियो का म्यान तो निश्चित रूप ,, से मुख आदि पर दिखाई देता है। इन्द्रियो और मन के स्थान अलग-अलग