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अध्यात्म-दर्शन
थोडी-सी योगक्रियाएँ करो, वह वश मेहमा हो गया है।" पर इस दावे फो सत्य नहीं माना जा सकता। क्योकि ऐसे दादेशार लोग एक और मन को वश में करने का दावा करते हैं, दूसरी ओर कावनिया का पन भी चाहते हैं। फल के विना बेचैन हो उठते हैं। इस प्रकार ये वदनी व्यापात' जमी परस्पर विरोधी वात करके ही अपनी बात को मिथ्या सिद्ध करते है। यह उनका कोरा वकवास है। जिनकी रीति, नीति, जादेण, उपदेश-गम्बन्धी प्रवृत्तियों प्रत्यक्ष राग-द्वेप से भरी दिखाई देती है, उनकी चान में कोई नत्यता नहीं है । वास्तव मे जिन्होंने मन को जीत लिया हो, वे अपने मुंह से कदापि नही कहते हैं कि 'मैंने मन को प्रश में कर लिया है, मेरे में राग-द्वेप नहीं है।' मन को साध लेने वाले की तमाम प्रवृत्तियां जगत् के हित के लिए होती हैं।
मत श्रीआनन्दघनजी अन्त में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे है-'एक ही बात छे मोटो' ससार में और सब बातें आसान हैं, मन को गाधना ही सबसे दुष्कर, कठिन और दुर्गम है । अत जगत् में सबसे बडी बात में मानता हूँ, वह एक ही है, वह है-मन को वश में करना । इनी के लिए माधक का विशेष प्रयत्ल होना चाहिए । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी अब अपने मनोविजय के बारे में ही प्रभु से प्रार्थना करते हैं -
मनडु दुराराध्य में वश आण्यु, आगमयो नति आणु । 'आनन्दघन' प्रभु माहरू आणो, तो साचु करी जाणुहो० ॥
कुन्यु०॥ मनुडु ० ॥६॥
__ अर्थ ऐसे दुराराध्य (मुश्किल से अधीन किया जा सके, साधा जा सके, ऐसे) म्न को आप (भु) ने वश मे किया यह बात में आगमो (मूलसूत्रो) से जानता हूँ,' स्वीकार करता हूँ । परन्तु हे आनन्द के समूह | वीतराग प्रभो! आप मेरे मन को काबू (वश) मे करा दें (ला दें), [मेरे मन को वश में करने के लिए आप सहायफ बनें] तमी इस बात को सत्यरूप मे मान सकता हूँ।
भाप्य
प्रभु से मनोवशीकरण की प्रार्थना श्रीआनन्दधन जी ने इस स्तवन के प्रारम्भ मे एक बात बार-बार प्रभु