________________
मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
लगा कर उसे वश मे करना सरल है, किन्तु मन पर विविध अकुश लगाने पर भी उसका वश मे होना कठिन है।
मन के साथी जबर्दस्ती करने पर भी छिटक जाता है कोई कह सकता है कि आसान तरीको से अगर मन वश मे न हो तो हठयोग या कठोर उपाय से जबरन उसे वश मे करना चाहिए। उसे जरा भी ढील नहीं देनी चाहिए । जरा-सा भी मन को पपोला कि वह सिर चढ़ जाता हैं, इसके उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी कहते है-किहाँ कणे जो हठकरी हटकु, तो व्यालतणी पेरे वाक ० अर्थात्-मन को हगग्रह पूर्वक यदि किसी जप, तप, भजन, सामायिक, स्वाध्याय, ध्यान आदि उत्तम क्रियाओ में रोक देता हूं या किसी समय उसे जबर्दस्ती खीवातानी करके काबू में करने की कोशिश करता हूं, यानी मन के साथ जोर अजमाई करता हूँ तो वह सांप की तरह चट से टेढा हो कर सरक जाता है, अथवा जैसे दवाया हुआ सर्प हाथ से छटक कर टेढा-मेढा हो कर झटपट भाग जाता है, वैसे ही यह भी चट से भाग छूटता है । अथवा पहले तो मेरा मन ही वक्र है, सर्प की तरह छेडने या उत्तेजित करके काबू में रखना चाहूं तो यह और ज्यादा वक्र हो जाता है। कुत्ते की पूछ को कितने ही वर्षों तक तेल लगा कर सीधी करने का प्रयत्न करने पर भी वह टेढी की टेढी ही रहती है, वैसा ही हाल मन का है। जितना-जितना मैं इसे एक स्थान पर स्थिर हो कर बैठने की बात कहता हूं, उतना उतना तेजी से यह उद्दण्डता (वक्रता) करके भागने की कोशिश करता है। हर प्रयत्न का उलटा फल आता है, मन किसी तरह ठिकाने नहीं आता।
किसी गृहस्वामी ने मन को एकाग्र करने के लिए सामायिक की । सामायिक मे माला के मन के घूमा रहा था, पाठ भी कर रहा था, परन्तु उसका मन मोचीवाडे मे अमुक मोची के यहाँ कर्ज की वसूली के लिए चला गया था। किसी ने उसकी पुत्रवधू से पूछा-"मेठजी कहाँ गए है ?" पुत्रवधू ने अपने ससुर के मन की गतिविधि को भांप कर कह दिया-'वे तो मोचीवाडे में गये हैं। सेठ ने सुना तो मन मे फिर उथल-पुथल मची । सामायिक पूर्ण होते ही सेठ ने अपनी पुत्रवधू से पूर्वोक्त जवाब के लिए स्पष्टीकरण मांगा तो उसने ससुरको उनके मन की गतिविधि का विवरण दिया। इसी प्रकार मन को किसी भी अनुष्ठान, धर्मक्रिया या साधनामे जबर्दस्ती रोकने पर भी वह छिटक जाता है। बडे-बडे