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अध्यात्म-दर्गन
गया। लेकिन प्रमन्त्रचन्द्र राजपि में मनोभावो की धारा एमादम बाली और कुछ ही क्षणो में उगे मार्थमिद्ध देवलोग में पहुँचने योग्य बना दिया । और एक ही झटके में उनके मन ने तमाम पानीकगों का धय पारणे फेवलज्ञान पा लिया। यह मारे ही वन्ध और मोटा का मुल मन-मदारी के हाथ में था। इसलिए मन ही कर्मों के नाटक का मूत्रधार बनता है।
मन, वचन और काया का योग कापायजन्य पुन है, योगी और कपायो (पिता-पुत्र) की क्रिया ने कमबन्धन होता है और कपाय मे योग व योग से कपाय, इस प्रकार मर्म जनित ममारचन चलता रहता है। इसी कारण जीव को जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, आधि-व्याधि आदि फप्ट नहने पडते है।
मन, वचन और काया इन तीनो योगी को मुमुक्ष शिप्य जव गुरुचरणो में समर्पित कर देता है, तभी उने विशेष लाभ होता है । लेकिन मुमुक्षु शिप्य जव देखता है कि उसका फाययोग तो उनको कहे अनुमार (जबरन भी) गुरुसेवा मे लग जाता है, वचनयोग को भी वह जबरन गुरुस्तुति में लगा सकता है, लेकिन मन इतना भोला और निवल नहीं है। वह मुमुक्षु की आत्मा (चेतन) की आज्ञा का पालन नहीं करता । बडा चचल है, नटखट है, इधर से उधर कूदफाद करता रहता है । वह साधक को वारपार हैरान कर बैठता है। वह शरीर और वचन की तरह गुरु या भगवान के चरणो में झटपट नहीं लग जाता। और जब तक मन परमात्मा में लीन या स्वल्पसाधना में एकाग्र नहीं हो जाता, तब तक किसी भी व्यावहारिक या पारमार्थिक कार्य की सिद्धि नहीं होती। इसीलिए कर्मयोगी श्रीकृष्ण के समक्ष एकदिन अर्जुन जैसे साधक को भी कहना पडा-'हे कृष्ण मन अत्यन्त च चल है, जबदस्त है, वलवान है और सुदृढ है। उसका निग्रह तो में वायु की तरह अतिदुष्कर मानता हैं।२
इसीलिए श्रीआनन्दधनजी जैसे मुमुक्ष साधक को कहना पडा-'मनडु किम ही न वाझे हो, कु थुजिन "प्रभो ! इस मनको मैंने देव-गुरु-धर्म तीनो मे
'मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोभयो.' चचल हि मन कृष्ण ! प्रमायि बलवद् दृढम् । तस्याऽह निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। -भगवद्गीता