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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध में समाधान
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भाष्य
परमात्मा के प्रति कृतज्ञता-प्रकाश श्री आनन्दघनजी ने शान्ति प्राप्त करने के विविध उपाय जो श्रीशान्तिनाथ, प्रभु के द्वारा प्राप्त हुए, उनका उल्लेख अब तक की गाथाओ मे किया । किन्तु अब वे आत्माराम की ओर से उल्लासपूर्वक कृतज्ञतप्रकाशन करते हैं-'ताहरे दरिसणे .......'
वास्तव मे पिछली कुल ६ गाथाओ मे अतिसक्षेप मे श्रीआनन्दघनजी ने आध्यात्मिक दृष्टि से शान्तिस्वरूप और शान्ति के उपायो पर प्रकाश डाल कर कमाल कर दिखाया | आध्यात्मिक शान्ति के विषय मे शास्त्रो मे वहुत ही विस्तार से कहा गया है, जैसा कि वे स्वय उल्लेख करते हैं, परन्तु उन बातो का सार ले कर वहत ही सक्षेप मे कहना रचनाकार की अत्यन्त कुशलता का परिचायक है। यह तो थोता पर निर्भर है कि वह सक्षेप मे कथित बात को विश्लेपणपूर्वक व्यौरेवार समझे।
जिज्ञासु साधक का यह कर्तव्य है जब उसकी उलझनें सुलझ जाय, मन मे उठते हुए विविध प्रश्नो का समाधान प्राप्त हो जाय, अन्तर मे ज्ञान का प्रकाश जगमगा उठे, बुद्धि को तृप्ति और सतुष्टि हो जाय तो आह्लादपूर्वक वक्ता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे । इसी दृष्टि से श्रीआनन्दघनजी शान्तिसाधक आत्माओ की ओर मे कृतज्ञता,विनम्रता एव भक्ति प्रदर्शित करते हैं।
शान्तिप्रभु के सिद्धान्त से अविरुद्ध वाणी प्रश्न हो सकता है कि यहाँ तो श्री शान्तिनाथ प्रभु ने कोई बात अपने मुख से कही नही, फिर यह कैसे कहा गया कि 'प्रभुमुख थी एम साभली ' इसका समाधान यह है कि जैनशास्त्रो की रचना के विषय मे एक सिद्धान्त है कि अर्थ (मूलवचन) के रूप मे पहले अर्हन्त भगवान् तीर्थकर देशना या उपदेश देते हैं। फिर गणधर उसे सूत्र का रूप देते हैं, उस भगवदुक्त वाणी का व्यवस्थित सकलन करते है। इस दृष्टि से हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि यहाँ शान्ति के विषय मे जो कुछ भी बाते कही गई हैं, वे तीर्थकर के वचनो से कही भी विरुद्ध नहीं है। हाँ, यह बात जरूर है कि 'तीर्थकर भगवान्
१ 'अत्थ भासइ अरहा, सुत्त गु त्यइ गणहरा'