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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
जाता है । जहा विधि-(अन्वय) तत्त्व से ग्राह्य विषय आता है, वहाँ निषेध (व्यतिरेक) तत्त्व से अबाह्य विपय अपने आप हट जाता है । जैसे शास्त्र वाक्य हैउपशम से क्रोव-विजय होता है, यह अन्वय वाक्य है, उपशम के अभाव (क्रोध) से क्रोधविजय नहीं होता, यह व्यतिरेकवाक्य हुआ।' नौ तत्त्व, द्रव्य-क्षेत्र कालभाव, द्रव्य-गुण-पर्याय, सात नय, पच अस्तिकाय, पाँच ज्ञान, उत्पाद-व्यय ध्रौव्य, क्षायिवादि पाँच भाव, सूत्र -अर्थ, पट् द्रव्य, निश्चय-व्यवहार, उत्सर्ग-अपवाद, कर्म और उसके भेद आदि जो कुछ बोच आगमो मे है, उम सबका मुख्य तात्पर्य पात्रजीवो को आत्मा का स्वरूप समझाना है, क्योकि जानने का फल आत्मा को ही मिनेगा, अन्यथा जानने की जरूरत क्या थी । विभिन्न प्रकार से अन्वयव्यतिरेक से आत्मा का स्वरूप समझाना ही शास्त्रो का मुख्य कार्य है। इसीलिए महापुरुपो ने आत्मपदार्थ को भलाभाति समझ कर उसका जिस रूप मे जो स्वरूप है, उसका यथार्थरूप मे आगमो मे सग्रह किया है। अत आगमो के द्वारा आत्मा को अविरोधरूप से वास्तविक रूपमे समझ लेना ही शास्त्रयोग है, जो एक तरह में शान्ति का कारण हे । आत्मा गुण नही, क्रिया नही, कल्पना से कल्पित वस्तु नहीं, अभाव-रूप पदार्थ नही, तथा सायोगिक पदार्थ नहीं, अपितु वह साक्षात् भावरूप अमूर्त, अविनाशी पदार्थ है, इस प्रकार विधि-निषेधरूप से प्रमाणल्प मे (गतानुगतिकता से नही) आत्मा का विधिवत् स्वीकार करना भी शान्ति का कारण है ।
१ देखिये आगमो मे विधि-निषेधक विभिन्न पाठ --
(अ) अप्पणा सच्चमेसेज्जा मित्ति भूहि कप्पए '-उत्तराध्ययन (आ) कोह माण च लोभं च माय च पाववड्ढण ।
वमे चत्तारि दोसा उ, इच्छतो हियमप्पणो ॥-- दशवकालिक (इ) अप्पा चेव दमेयन्बो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दतो सुही होई अस्सि लोए परत्थ य ।।
-उत्तराध्ययन ई) न लोगस्सेसण चरे'-आचारांग [3] सुयाणि य अहिज्जित्ता, तओ झाइज्ज एगओ।
-उत्तरा०