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अध्यात्म-दर्शन
अभिलापा करता है और न ही ममारपालि की इच्छा करता है, क्योंकि इच्छा, कामा, अभिनाया भोर नालसा ये मर मोहनीयवाजनित है। इसलिए वह किसी भी प्रकार की इच्छा, वासना या ममिलापा, यहाँ तक कि मोक्ष की इच्छा को मी त्याज्य समझता है । भानी आत्मा गमागमुद्र पार करने हेतु समता को नौका मान कर मोक्ष-सिद्धस्वरूप (गुद्वात्मस्वरूप) प्राप्त कर। का सतत पुण्यार्य करता है । उसके लिए व्यवहारदृष्टि से तप, सयम, स्वाध्याय, ध्यान आदि का मालम्बन लेता है। इमीलिए शास्त्र मे कहा है-' पटकाय के रक्षक, परमशान्त महपि पूर्व कर्मा का रायम नीर तप से क्षय करके, समस्त दुखो को क्षीण करने के लिए आत्मभावरमण का पुरुपार्य करते हैं । इस प्रकार यात्ममिति प्राप्त करके वे अनादि-अनन्त शान्तिस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं।
इस प्रकार का समतायोगी जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तो उसकी सर्वस्व स्वभावनिष्ठा आत्मा मे ही परिनिप्टिन हो जाती है। मात्मा के सिवाय उसके समक्ष कोई भी द्रव्य नहीं रहता, कोई भी विकल्प नहीं रहना, एकमात्र आत्मा, आत्मैकत्व, उसके समक्ष रहता है, इसी बात को आगामी नाया मे बताते हैं
आपणो यातमनाव जे, एक चेतनाऽऽधार रे। अवर सवि साथ सयोगथी, एह निज परिकर सार रे॥
शान्ति० ॥११॥
अर्थ अपना (स्वय का) सक्रिय शुद्ध आत्मभाव (आत्मत्व) ही शुद्ध चैतन्यस्वरूप
१-खवित्ता पुवकम्माइ सजमेण तवेण य ।
सिद्धिमग्गमणुपत्ता ताइणो परिणिन्डा ।। -दशवकालिक अ ३
(सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महे सिणो) -उत्तरा० अ २८ २. एगे आया-ठाणाग सूत्र 'आया सामाइए आया सामाइयस्स अट्ठ-भगवतीमूत्र
एक आत्मा है । जगत् में समस्त प्राणियो की एक सरीखी आत्मा है । आत्मा ही सपा =मामाविक है सामायिक द्वारा प्राप्त अर्थ है ।