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अध्यात्म-दर्शन
आनागी गावाओं में माध्यामिक गान्ति की प्राणिनिए विविध उपाय बताए है
दुष्टजनसंगति परिहरे, भजे सुगुरासन्तान रे। जोग सामर्थ्य चित्तभाव जे, धरै मुतिनिदान रे ॥ शान्ति ॥८॥
अर्थ मात्मशान्ति मे विघ्न डालने वाले मिथ्याग्रही, अभिनिवेशो, मियामापी, मियादृष्टि, निर्दय आदि दुष्ट दिचार-आचार से दूपित) लोगों अयवा मिच्यास्व, कषाय, विषयमक्ति आदि दोपों का ससर्ग छोड कर निष्पक्ष चानी जात्माओं गुरु अथवा उनके निग्राय मे रहे हुए शिप्यो को मग ति पारे। इस प्रकार जो मुमा मुक्ति [गान्ति] के कारणरूप सामध्यंयोग [मात्मवीर्य ] को चित में भावोल्लामपूर्वक [या आत्मा के उच्चस्वभावपूर्वक] धारण करता है, वह मोक्षसिद्धिशान्तिलाम प्राप्त करता है ।
भाष्य
दुष्ट-तगतिवर्जन शान्ति के लिए जरूरी मुमुक्षु और शान्तिन्वल्पप्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को दुराग्रही, दुप्टस्वभावी एव वितण्डावादी' दुर्जन लोगो की मोहबत से दूर रहना चाहिए, क्योकि 'ससर्गजा दोषगुणा भवन्ति' इस न्याय से हलकी एव नीच प्रकृति के लोगो के साथ रहने से लाभ के बजाय हानि ही अधिक होती है। उनके दोप मद्गुणी आत्मार्थी साधक मे आने सम्भव हैं । ऋ र कदाग्रही आदि दुष्टो या दोपो की सगति १ ते मन मे सक्लेश पैदा होता है, अगान्ति और बेचैनी बढ़ती है।
सुगुरु-सन्तान की सेवा मे रहे अगर नगति करनी ही हो तो सद्गुरु -(निस्पृह, अनासक्त, त्यागी, एव आत्मार्थी गुरु) की सेवा मे रहे। ऐसा करने में आत्मविकास की सुन्दर प्रेरणा मिलेगी, आत्मकल्याण का उपदेश मिलेगा, कपाय-रुचि और विपयासक्ति मन्द होगी। अगर वे मद्गुरु महापुरुपो की शिप्य-पर
१. कहा भी है
'खुडेहि सह ससग्गि, हास कीड च वज्जए'
-~-उत्तरा,
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