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अध्यात्म-दर्शन
में तो गुह आलम्बन एकमात्र शुदम्बस्गलक्ष्यी आत्मा ही हो सकता है, जिसमे अन्य विकलो वा जान न हो। वह बालम्बन गदा अग्रण्ट आत्मस्वरूप मे गणस्प चारित्र, आत्मनान और आत्म-वरूपवर्णन हो मरता है। वहीं म्वावलम्बन है। उस दृष्टि में किसी दूगर का, यहाँ तक कि देव, गुरु और धर्म का भी आलन्दन पराग्वन है। आत्मा का मालम्बन लेने में किसी दूसरे मे याचना करने की, दूसरे को रिसाने की दृष्टि मे गुणगान करने की जरुरत नहीं रहती। परन्तु जहाँ तक शरीर गाय में है, वहां ता किसी न किसी दूसरे का आलम्बन लेना पटता है। और यो देखा जाय तो मालम्बन शब्द ही परमापे-पक्षित है। आत्मशक्ति बी पता ही मालम्बन की अपेक्षा सती है। साध्य मे जब तक अपूर्णता है, जब तक संसारसमुद्र से वह पार नहीं हो जाता, तव त्या उमे नीका की तरह शरीर, मंघ, देव, गा, धर्म शास्त्र आदि का आलम्बन लेना ही पड़ता है। आलम्बन मनुष्य तभी तक लेता है, जब तक वह पूर्णता के शिखर पर नहीं पहुंच जाता। शास्त्र में बताया गया है कि' धर्माचरण करने वाले माधु के लिए पांच ग्यानो (आघारो) के निधाय (आलम्बन) वताए है.---राघ, धर्माचार्य, गृहस्थ, छह काया (सनार के प्रत्येक कोटि के जीव), और गासका। यह तो हुई व्यावहारिक और मामाजिक दृष्टि से आलम्बन की बात। व्यवहान्दृष्टि से शुद्धदेव, सद्गुरु और सद्धर्म का आलम्बन लेना अपूर्णसाधक के लिए आवश्यक होता है। परन्तु दन और रोने ही अन्य आलम्बनो को ग्रहण करते नमय यह विवेक करना होगा कि मैं जिन देव-गुरु-धर्म आदि का जानम्वन ले रहा हूं, वे वीतरागभाव-पूर्णशान्ति-शुद्वात्मगाव की ओर ले जाने वाले हैं, या परम्पर साम्प्रदायिकता, सम्प्रदायमोह, कदाग्रह, राग-द्वेष, कपाय, संघर्ष जादि बढाने वाले है ? अगर वे आलम्बन तथाकथित देव-गुर-धर्म के नाम से झगडे, उपद्रव, सिरफुटीबल, छल छिद्र, दम्भ आदि पैदा करने वाले हो तो उन्हे व्यवहारदृष्टि से मी शुद्ध आलम्बन वाहना अनुत्रित है । इसी प्रकार व्यवहारदृष्टि से मोक्षलक्ष्यी आलम्बन के स मे व्यवहार सम्यग्दर्णन,
१. धम्मस्स ण चरमाणस्स पच ठाणा निस्सिया पण्णत्ता-छकाया, गणे, राया, धम्मायरिए, गाहावई।
-स्थानांगसूत्र पचम स्थान
हावा
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