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वीतराग परमात्मा का चरणसेवा
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कदाग्रह छोडने की बडी-बडी बाते करते हैं किन्तु दूसरी ओर से हम ही गच्छो, पथो आदि के भेदो से चिपटे हुए है, सम्प्रदायमोहवश एक दूसरे मे परस्पर, भेद डाल कर अथवा अनुयायियो के मन मे अपने से भिन्न मत, पथ, मम्प्रदाय आदि की निन्दा करके घृणा पैदा करते है। जहाँ तत्त्वज्ञान हो, वहाँ ममत्व की वृत्ति शोभा नहीं देती। जहां तत्त्व हो, वहाँ ममत्व नही और जहाँ ममत्व हो, वहाँ तत्त्व नहीं होता। परन्तु इन कलियुगी माधको की तो वात ही निराली है। इनका ऊपर का साधु वेप और वचनाडम्बर देख कर भोलेभाले लोग उनके वारजाल मे फँस जाते हैं, वे इनकी ढोल मे पोल को 'जान नहीं पाते। किन्तु वास्तव मे ऐसे साधक दम्भी हैं, वे थोथे तत्त्वज्ञान द्वारा ही परमात्मचरणसेवा हो जाना मानते है, पर ऐमा मालूम होता है कि ये सब बाते केवल पेट भरने, प्रतिष्ठा पाने, वस्त्रादि अन्य साधन लेने एव अपना स्वार्थ सिद्ध करने की हैं , और इस कलियुग मे वे अन्दर से मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के चगुल मे फंसे हुए हैं , केवल वाहर से शोभायमान लगते हैं, अन्दर से तो मोह की मजबूत गाँठ से जकडे हुए हैं। ___ वास्तव मे श्रीआनन्दघनजी ने आज के तथाकथित तत्त्वज्ञानवादी लोगो को बडी चेतावनी इसमे दे दी है। ऐसे व लियुगी गुरुओ के कारण ही परमात्मा की यथार्थसेवा इस युग मे दुर्लभ हो रही है। आज के युग मे तथाकथित साधक आचार्य, सूरिसम्राट, मुनिपु गव, प्रखरवक्ता, अध्यात्मयोगी, योगीराज, आत्मार्थी आदि बन कर लच्छेदार भाषा मे तात्त्विक बातें बघारते रहते है, परन्तु उनके व्यवहार को देखा जाय तो वे अत्यन्त सकीर्ण, अनुदार, दूसरे सम्प्रदाय, या, पथ (गच्छ) के साधुओ से घृणा, छूआछूत या भेदभाव करने वाने, दूसरो को मिथ्यात्वी समझने वाले प्रतीत होते हैं। मन करिपत क्रियागाड, वेष, पथ, मत, या गच्छ की थोथी महत्ता की डीग हांकने वाले के मुख से आत्मज्ञान या तत्त्वज्ञान की बातें शोभा नहीं देती। मोह के शिकजे में फंस कर ऐसे लोग तन्त्रज्ञान छौ कर पूंजीपतियो को अपने, भक्त वना लेदे हैं, वे इनके वढिया खानपान, आवश्यक्ताओ मानप्रतिष्ठा आदि स्वार्थ की पति कर देते है, ये उन्हे पुण्यवान भाग्यशाली, मेठ, दानवीर आदि विशेषणो से सत्कृत सम्मानित कर देते हैं। इस प्रकार इनके तत्त्वज्ञान का उपदेश परमात्मा की चरणसेवा वा प्रयोजन सिद्ध करने वाला नहीं होता, वह एक प्रकार से मोहलिप्त स्वार्थ सेवा करने वाना हो जाता है।