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वीतराग परमात्मा की चरणसेवा
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फलाकाक्षावादी बन कर फिर उन्ही को भगवान् पैगम्बर या गुरु मान बैठते हैं। इस प्रकार न तो वे उच्च भूमिका (गुणस्थान) पर पहुंच पाते हैं, जहाँ देव-गुरु-धर्म की कोई आवश्यकता नहीं रहती। उनमे स्वत. देवत्व, गुरुत्व और शुद्ध धर्मतत्त्व प्रगट हो जाता है । किन्तु वे भोलेभाले लोग तो इतनी उच्च भूमिका को छू नही पाते और न ही सच्चे देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा रख कर चल पाते है । वे त्रिशकु की तरह अघबीच मे ही लटके रह जाते है। इसलिए परमात्मतत्व को प्राप्त करने के लिए जो बुनियादी तीन तत्त्व हैं-सम्यग्देव, सम्यग्गुरु, और सद्धर्म , उनकी शुद्धि यानी दर्शनविशुद्धि वे नही कर पाते । इसका नतीजा यह होता है कि वे विविधमत-पथवादियो के पास इधर-उधर भटकते रहते है, वाह्य दृष्टि से भी और आत्मिक दृष्टि से भी वे जन्ममरणरूप ससार मे भटकते रहते हैं। वे देवगुरुधर्मतत्त्व की शुद्धि जो सद्व्यवहार की मुख्य आधारशिला है, उसे हृदय मे नही जमा पाते । वास्तव मे उस शुद्धि का आधार शुद्ध श्रद्धा है, उससे भी वे हट जाते है। ___जव व्यक्ति के जीवन मे शुद्ध श्रद्धा (उक्त त्रिवेणी पर) नही होती,,तो वह जो भी श्रद्धा, प्ररूपणा या क्रिया करता है, वह सव राख के ढेर पर लीपने के समान व्यर्थ श्रम होता है। उन क्रियाओ या प्ररूपणाओ से सिवाय ससारपरिभ्रमण के और कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । उन क्रियाओ आदि मे लगाया हुआ समय, श्रम, शक्ति और दिमाग सब कुछ अपने ही हाथो व अपने ही पैरो पर कुल्हाणी मारने सरीखा होता है। साधकजी गये थे मुक्ति की साधना करने और फस गये ससार (भोग) की साधना मे, ऐसा ही कुछ हो जाता है।
श्रद्धा, सम्यक्त्व, श्रद्धान, सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन, ये सव एकार्थवाचक हैं । जो वचनसापेक्ष व्यवहार का आदर करना चाहता है, उसे शुद्ध गुरु और सद्धर्म का शरण लेना ही होगा। तभी उसका शुद्ध श्रद्धान टिक सकेगा। यानी उसे व्यवहारदृष्टि से सम्यक्त्व प्राप्त हो कर टिक सकेगा । सम्यक्त्व के विना जितनी भी क्रिया (चाहे वह भगवान् का नामजप, गुणगान या स्तुति अथवा वाह्यपूजा, भक्ति भी क्यो न हो) की जायेगी, भले ही वह वचनसापेक्ष व्यवहारयुक्त हो, तो भी राख पर लीपने के समान निष्फल होगी। मतलव यह है कि सम्यक्त्व के बिना सव वृथा है, एक अक के बिना विदियो के समान