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नपारम-वयन
भाष्य
परमात्मा के साथ अभिन्न प्रीति कसे ? श्रीआनन्दघनजी औपचारिक रूप से परमात्मा के साथ बातचीत करने की रीति प्रगट करते है, क्योकि पूर्वगाथा में प्रभुप्रीति का अत्यन्त आसान और निकटवर्ती रास्ता बताया था, उससे परमात्मा अत्यन्त नजदीक हो जाते हैं। अत मुमुक्षु अपने अन्तर में प्रभु के नाथ बातचीत करता है-प्रभो । घमं जिनेश्वर ! मैं आपके माथ प्रीति तो करना चाहता हूँ, आपमे साथ मेरी प्रीति होगी कैसे ? और होगी तो भी निभेगी कैसे और कितने दिन ? क्योकि प्रीति उभयपक्षी होती है, एकपक्षी नही । दूसरी बात यह है कि समान प्रकृति, एकसरीखे शील, स्वभाव और आदत वालो की प्रीति (मैत्री) जुड़ती है। मेरी और आपकी प्रकृति (स्वभाव) मे व्यवहान्नय की दृष्टि से बहुत ही अन्तर है । मैं रागीद्वपी है, मोहग्रस्त है । मैं बात-बात मे राग, द्वेष, और मोह मे घिर जाता हूँ
और आप किसी पर भी, यहा तक कि आपकी वर्षों से सेवा करने, एक मापके प्रति अनुराग रखने वाले पर जग भी राग नहीं करते और न ही आपसे प्रतिकूल चलने वाले दुप्टजन या विरोधी पर टेप या घृणा करते हैं, ससार की किसी भी मनोज्ञ से मनोज्ञ चीज के प्रति भी आपका मोह (आमक्ति) नहीं है। मै अभी तका कर्मबन्ध मे युक्त हूँ, प्रतिक्षण विभिन्न फर्मों से युक्त होता है। जवकि आप कर्मबन्ध से रहित है, मघवा घातीमो मे विलकुल दूर हैं। लत. आपकी और मेरी प्रकृति, आदत और स्वभाव में रात-दिन का अन्तर होने से आपके साथ मेरी प्रीति हो ही कैसे सकती है ?"
"माना कि निश्चयनय की दृष्टि से आपके और मेरे स्वरूप, और स्वभाव मे कोई अन्तर नहीं है । परन्तु निश्चयनय तो आदर्श की बात कहता है। आदर्श और व्यवहार मे वहुत बडी दूरी होती है। अगर दोनो मे इतनी दूरी न होती तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा के निकट पहुंच गई होती। अत इस अन्तर को दूर करने पर ही आपकी और मेरी प्रीति हो सकती है। यह एक लौकिक तथ्य है कि एक व्यक्तितो दूसरे के साथ स्नेह सम्बन्ध जोडने या रखने के लिए उसके हेतु तन, मन, धन सर्वस्व होमने, यहाँ तक कि पतगे की तरह मर मिटने तक को तैयार है, परन्तु दूसरे की ओर तैयार है, से कोई जवाब नहीं
१ 'समान-शोलव्यसनेषु सख्यम्'--नीतिकार