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अध्यात्म-दर्शन
उसे उसीरूप मे उसी स्वभाव या परिणाम वाला माने, उगके वियोग या अनिष्ट सयोग में मेरी आत्मा का कुछ भी बिगटने वाला नहीं, हम प्रकार की दृढ़ श्रद्धा यथार्थ विश्वास, वीतराग-आप्त- वचन पर पूर्ण आस्था रख कर चलें ; तभी शान्ति-मानसिक शान्ति हो रावाती है । अन्यथा, श्रद्धा मानव को बेचन कर देती है । अश्रद्धा से मानव-मरितप्क मे ऊनजन्नूल विनागे के तूफान उठने हैं। अथवा निश्चयदृष्टि में इसका अर्थ है-औपमिकादि जो भाव विशुद्ध नहीं है , तथा जो भाव (पदार्थ या तत्व) विशुद्ध बताये है । यानी अच्छे और बुरे जो भाव (तत्व या पदार्थ ) जिग जिस रूप में आप्त वीतरागदेव ने कह है, उन्हें उसी स्प मे ममझे, उन पर श्रद्धा रखे और मे ही हैं, यो जाने, यह मबरी पहली शान्तिपद-प्राप्ति की शर्त है ।
तीर्थकरदेव द्वारा प्रस्पित भाव वीतराग अर्हदेव भाप्तपुरुष है, वे राग, द्वेप एव मोह, पक्षपात आदि दोपो से रहित होने के कारण वस्तु का स्वत्त विपरीतरूप मे वताएँ, ऐसा असम्भव है। अत ' जीव, अजीव, पुष्प, पाप आदि नो तत्व जीव को सम्बन्ध में विचार, तथा दूसरे अनेक भाव या पदार्थ, पड् द्रव्य आदि तीर्थकरदेवो ने मूनसूत्रो मे बताये है, वे उसी रूप में यथार्थ हैं, इस प्रकार की श्रद्वा उन पर रखें।
वस्तु को अपने असली स्वरूप मे-अन्तरग-बहिन्ग दोनो स्पों में देखना और उस पर विश्वास जमाए रखना, शान्तिप्राप्ति की पहली शन है । वीतरागप्रभु ने आगमो में कई जगह खराव भावो का भी वर्णन किया है। पापी जीव कर्म के किस-किस प्रकार के फल भोगते हैं, उनके चरित्र भी बताए है। कर्मों के अच्छे-बुरे फल भी मिलते हैं, मृपि कर्ता ईश्वर या और
जीवाजीवा य वधो य, पुण्णं पावासवो तहा । सवरो निज्जरा मोक्खो, सतेए तहिया नव । तहियाणं तु भावाण सभावे उवएतणं । भावेण सद्दहतस्स समत्त त वियाहिय ॥ ससारत्या य सिद्धा य इमे जीवा वियाहिया । रुविणो चेवारूवी व अजीवा दुविहा विय ॥ इम जीवमजीवे य सोच्चा सद्दहिऊण य । सद्धाणनाणमणमए रमेज्ज सजमे मुणी॥
-उत्तरा०