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परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म
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लिए उत्सुक होता है, तब वह यह देखता है कि आदर्श कसा है, बिना आदर्श, के व्यवहार के लिए व्यक्ति तैयार नहीं होता। आदर्श के बिना व्यक्ति निरुत्साहित एव हताश हो कर यो कह कर बैठ जाता है कि ऐसा व्यक्ति तो कोई है नहीं, फिर हम किसके पीछे चलें, किस साध्य को सिद्ध करे या किस ध्येय को प्राप्त करें ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी वीतराग-प्रभु के गुणो (आत्मगुणो) का वर्णन करते हुए कहते हैं--प्रभु धर्मनाथ (अथवा कोई भी वीतरागी पुरुष) निर्मल (जिनके ज्ञानादि गुणो मे किसी प्रकार का मल या दोप नहीं है), गुणरूपी रलो के रोहणाचल हैं। कहते है, रोहणाचल नामक पर्वत सिलोन (श्रीलका) मे है, जिसमे अनेक रत्न होते हैं, वह पर्वत ही रत्नमय है। मत जसे रोहणाचर्य अनेक रत्नो का उद्गमस्थान है, वैसे ही जिनप्रभु भी अनेक गुणरत्नो के उदगमस्थान है। तया वे मुनियो एव मुमुक्षुप्रो के शुभ मनरूपी मानसरोवर के हस हैं । जैसे हस मानसरोवर पर आ कर विश्राम लेता है, वैसे ही वीतरागप्रभु परमहस (जलदुग्धवत् हेयोपादेय का विवेक करने वाले) मुनिजनो के पवित्र मनरूपी सरोवर पर आ कर विराजते हैं । परमात्मा का परम ज्ञानप्रकाश मुनिजनो के मानस मे ही स्थिर होता है । अथवा मानसरोवर के हंससदृश मुनियो के पवित्र मन जहाँ क्रीडा करते हैं, वह प्रभु ही मेरे लिए सर्वस्व हैं, वे ही मेरे आदर्श, ध्येय और साध्य हैं । असख्य गुणो और पवित्रता के धामरूप बने हुए प्रभु मेरे आधार हैं । ऐसे परमात्मा के साथ प्रीतिधर्म व सेवाभक्ति के पालन द्वारा अभिन्नता स्थापित करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। आपमे दानशीलता, निर्भयता, निर्लोभता, नीरोगता आदि अनेक गुण हैं, कितने गिनाऊँ । आपके अनेक गुण ही मुझे वरवस आपसे भक्ति, सेवा, एव प्रीति करके अभिन्न एव तन्मय होने को प्रेरित करते हैं।
इसी कारण आपके प्रति भक्तिविभोर बनी हुई वाणी सक्रिय हो उठती है कि वह नगरी, वह वेला, वह घडी धन्य है, जहाँ और जब आपका जन्म हुआ था। वे माता-पिता भी धन्य है, जिन्होने आपको जन्म दिया । वे कुल और वश भी धन्य हैं, जिन्हे आपने पावन किया । व्यक्तिगत दृष्टि से अर्थ करे तो
धर्मनाथप्रभु की जन्मभूमि रत्नपुरी (अयोध्या के पास) थी। उनके जन्मसमय ___की वेला व घडी भी शुभ थी। उनकी माता का नाम सुव्रता और पिता का