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अध्यात्म-दर्शन
दम्भ किया, इसके लिए मैं जलती, वृक्षतीर्थ पर्वतनीयं, गति या मन्दिरम्य तीर्थ आदि अनेक स्थानो पर परमात्मा के दर्शन करके परमात्मप्रीतिर धर्माचरण की दृष्टि से बहुत भटका, जहां-जहाँ मेग मन, पहुँच जाता था, वहां-वहां दौड लगाई। अर्थात्-मेरे मन ने जहां जाने का मयत्य विया, वहाँ दोटा गया । सारय, न्याय, मीमामा, वेदान्त आदि दर्शनो में बनाई हुई कल्पनाओ के वश हो कर सभी साधनाएं की। बहुत-सी दफा अमुक तीर्थ में परमात्मा होंगे, यह सोच कर वहां चक्कर लगा आया, और पूर्वोक्त धर्म को भी अनेक जगह व्यर्थ ही खोजा, फिर भी मफनता न मिली। मुझे अन्तर्मुखी हो कर' आत्मतीर्थ में म्वम्वरूपदर्शन में दुबकी लगानी थी, जो कि मेरे पान ही था, मगर वहां नहीं लगाई। जो वन्तु अत्यन्त निकट थी उने पहिचान न सका और जहाँ-नहा दौडधूप की, उसे ढूंढने के लिए आकाश-पाताल छान डाला।" चिन्तु श्रीआनन्दघनजी उक्त जिजागु भव्यप्राणी मे कहते हैं-'इस प्रकार वाहर भटकने की तुम्हें जरूरत नहीं। जिमे तुम बाहर टूट रहे हो, वह विभूति तुम्हारे अपने अन्दर है, तुम्हारे माय है, तुम्हारे पास है, वह तो तुम (स्व-आत्मा) ही हो। अत पहले अपने (आत्मा) को जानो, फिर उसके बारे मे तन्त्रदर्शन करो, तत्पश्चात् आत्मज्ञानी समदर्शी सद्गुन का मार्गदर्शन लो, उनके व आप्तपुरषो के वचनो का श्रवण-मनन और ध्यान करो, गुरु के उपदेश को आत्मा के साथ जोड दो। यही मश. प्रेम, प्रतीत, विचारो' गुरु, गम लेजो, इन पदो के साथ अर्यसवेत है, प्रेम के साय मामायिकादि चारित्र, का प्रतीत के साथ सम्यग्दर्शन का, 'विचारो' के माय सम्यग्ज्ञान या ध्यान का, गुरु के माथ आत्मज्ञानी समदर्शी सद्गुरु का, 'गम के माय जिनप्रवचन के श्रवणमनन या मार्गदर्शन का 'ल जो जोड़' पदो के माय स्वज्ञानम्वदर्शन-स्वचारित्र, और मद्गुरु की सेवा-उपासना करके उनके द्वारा आत्मपरमात्ममिद्वान्त का श्रवण-मनन करके आत्मा मे ही इस उपदेश को जोडो । इसी तरीके से धर्ममय शुद्धात्मा (परमात्मा) से अखण्ड प्रीति होगी। आत्मापरमात्मा की स्वरूपप्राप्ति (अखण्डप्रीति) का असली साधन व आलम्बन
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१ कहा भी
"इद तीर्थमिद तीर्थ भ्रमन्ति तामसा जना. , आत्मतीथन जानन्ति, सर्वमेव निरर्थकन् ॥