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परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म
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प्राप्त करना, (४) आत्मा-परमात्मा की स्वरूपनिधि का देखना । इन चारो के द्वारा परमात्मप्रीतिरूप धर्म का पालन करके धर्मनाथ भगवान् के साथ अभिन्नता स्थापित करना-परमात्मस्वरूप बन जाना ही इसका वास्तविक फल है। , अब अगली गाथा मे इससे आगे की प्रक्रिया बताते हैं
दोड़त दोड़त दोड़त दोड़ियो', जेती मननी दोड़, जिनेश्वर ! प्रेमप्रतीत विचारो, दकड़ी गुरुगम ले जो जोड़, जिनेश्वर ॥
धर्म ॥४॥
अर्थ
प्रभु से प्रीति जोड़ने के लिए मैं खुब दौड़ा, खुन दौडा, मन की जितनी दौड़ (पहुँच) थी, उतने तक दौड़ा । परन्तु किसी ने कहा-अपनी बुद्धि के साथ गुरुदेव से मिले हुए निर्धारित मार्गदर्शन (गुरुगम) को जोड़ कर समझोदेखो तो तुम्हें प्रभु के साथ निकट ही प्रीति है इस बात की प्रतीति हो जायगी।
भाष्य
__ प्रभु से प्रीति जोड़ने का आसान तरीका योगी श्रीआनन्दघनजी ने यहां परमात्म-प्रीतिरूप धर्मपालन के बारे मे साधक की उलझन और उसको सुलझाने का आसान तरीका अभिव्यक्त किया है। क्योकि जगत् मे प्रभुप्रीतिरूप धर्म भव्य प्राणी को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक उसे सद्गुरु का मार्ग-दर्शन न मिले, परमात्मा के प्रति नि स्वार्थ या निष्काम प्रेमभाव से उत्कट श्रद्धा-प्रतीति न हो । तात्पर्य यह है कि जहाँ तक भव्यात्मा को सम्यग्दर्शन और गुरु-मार्गदर्शन, ये दोनो प्राप्त नही, होते वहाँ तक शुद्धात्मा या धर्मदेवरूप परमात्मा के साय सच्ची प्रीति नहीं होती। जिसे ये दोनो प्राप्त हो जाते हैं, वह साधक अपनी जानचेतना के बल से अपना अनुभव प्रगट करता है-"प्रमो ! मैं अपनी बात क्या कहूँ? मैं धर्म-धर्म रटता फिरा, धार्मिक होने का दावा किया, धार्मिक होने का दिखावा या
१ कही कही 'दोडियो' का अर्थ किया गया है-दौडना। यानी मन की
जितनी दौड है, वहाँ तक खूब दौड लगा लो।