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१५: श्रीधर्मनाथ-जिन-स्तुतिपरमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म
(तर्ज-रसिया, सारग, राग गौडी) धर्म जिनेश्वर गाऊं रग शुभग म पडशो हो प्रीत, जिनेश्वर ! 'बीजो मनमन्दिर आरग नहीं, ए अम कुलवट-रीत, जिनेश्वर ।
धर्म० ॥१॥
अर्थ इस अवसर्पिणी काल के १५ जिनेश्वर श्रीधर्मनाय-स्वामी (परमात्मा) का गुणगान आत्मभाव के रंग मे रग कर करता हूँ। प्रभो । मेरी आपके ताप जो प्रीति है, उसमे भग न पडे, यही चाहता हूँ । मैं आप (वीतराग) के सिवाय अन्य किसी को अपने मन-(मनोयोगरपो) मन्दिर मे प्रविष्ट नहीं कराऊंगा; यह हमारे (सम्यग्दृष्टि के) कुल की कुलीतता (टेक) की रीति (परम्परा) है।।
भाष्य
परमात्मा के साथ अभिन्नप्रीतिरप धर्म पूर्वस्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने वीतराग-प्रभु की चरणसेवा का व्यवहारधर्म बताने का उपक्रम किया है, इस स्तुति मे उन्होंने परमात्मा के साथ अभिनता स्थापित करने के लिए निश्चयधर्म बताने का प्रयत्न किया है। वास्तव मे आत्मा और परमात्मा के बीच में जो दूरी है, उसे मिटाने के लिए धर्म ही एकमात्र पुल है। परन्तु परमात्मा के साथ सदैव अभिन्नता टिकाये रखने वाला धर्म स्वरूपसिद्धिरूप धर्म है, जिसे परमात्मा के भक्त को अपने जीवन मे अमूल्य रत्न की तरह सुरक्षित रखना है, उसे यात्मस्वरूप के दीपक की लौ सदा प्रज्वलित रखनी है । धर्म गया तो सब कुछ गया। जैसे पतिव्रतास्त्री अपना धर्म अपने प्राणो की तरह सुरक्षित रखती है, समय आने पर वह प्राणो को होम देती है, मगर धर्म को जरा भी आँच नहीं आने देती, वैसे ही परमात्मा का भक्त