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अध्यात्म-दर्शन
निरपेक्ष, नयप्रमाणयुक्तमूत्र मे विरुद्ध, न्यून या अधिक कथन, भाषण या आचरण करने से बढ़कर और कोई पाप नहीं और जिनवचनगापेक्ष नयप्रमाणयुक्त मूत्रानुसार यथार्थ प्ररूपण, कयन या आनरण करने के समान कोई धर्म नहीं है । जो भव्य साधक उपयुक्त विधि से सूत्रानुसार क्रिया करता है, उसी का चारिय शुद्ध समझना चाहिए। उसका तात्पर्य यह है कि जो भव्य जीव वीतराग परमात्मा की आज्ञा (वचन) का अनुसरण करते हुए मिया (धर्माचरण करता है, भानयोग मे समन्वित क्रियायोग की साधना करता हुमा आत्मविकास का पथ तय करता है, उनका चारिश शुद्ध है। इसके विपरीन जो मनमाना चलता है, वह चाहे जितना बडा तपस्वी हो, फियाकाण्डी हो, महत हो, या आडवरो और चमत्कारो से प्रभावित कर देता हो, उनका चारित्र शुद्ध नहीं कहा जा सकता , क्योकि उसका सारा आचरण मूघनिरपेक्ष या आज्ञावाह्य होने से सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण सम्यक्तचारियस्य नहीं है।
अव अन्तिम गाया मे वीतरागपरमात्मा को चरणसेवा के लिए बताये हुए उपायो को हृदय मे सजो कर भक्तिभावपूर्वक जो नाधनापथ पर चलना है, उसका फल बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते हैंएह उपदेशनो सार संक्षेपथी, जे नरा चित्तमां नित्य ध्यावे। ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत 'आनन्दघन' राज पावे ।
॥धार०॥७
अर्थ
इस पूर्वोक्त उपदेश का सार जो व्यक्ति प्रतिदिन हृदयंगम करके ध्यान मे रखते हैं, वे भक्ति शील व्यक्ति चिरफाल तक दिव्य (देवलोक के) सुखों का अनुभव करके अन्त में अवश्य (निश्चित) ही आनन्दमन (परमात्मा) का राज्य-- मोक्षराज्य प्राप्त करते हैं।
भाष्य इस स्तुति मे वीतराग परमात्मा की चरणसेवा के लिए श्रीआनन्दघनजी ने उन सब वाधकतत्वों की ओर से सावधान रहने का सकेत किया है, जो वाहर से तो परमात्मा की सेवा मालूम होती है, परन्तु वास्तव मे सेवा की ओट मे वे ससार मे परिभ्रमण कराने वाली हैं। उनमे से मुख्यतया निम्नलिखित वातें ये हैं-१-क्रिया के विविध ससारपरिभ्रमणजनक फलो का विचार