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वीतराग परमात्मा की चरणसेवा
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अथवा अनेकान्त का अर्थ एकान्त न होना भी है। कई बार क्रिया का फल मोक्षमार्ग की प्राप्ति होता है, कई बार ससारवृद्वि होता है। यानी क्रिया का फल एकात (एक ही प्रकार का) नहीं होता। इस बात को त्रिन्यावादी नही देखते नहीं विचारते । कुछ लोग श्रिया के अनेक (विभिन्न) फलो को तो जानते-मानते हैं, पर वे इस भव या परभव मे सुखमुविधाएँ, वैभवादि की प्राप्ति की आशा मे क्रियाएँ करते रहते है । वे क्रिर ए फल तो अवश्य देती हैं, पर उगे हम सच्चे माने मे फल नहीं कह सकते, स्थायी सुख देने वाले फल को ही हम वास्तविक फल वह मकते है । अस्थायी फल वाली क्रियाओ मे तो वे वेचारे एक से दूसरी गति मे, दूसरी से तीसरी गति मे भ्रमण करते रहते हैं। देवगति या मनुष्यगति में मिलने वाले पोद्गलिक सुखरूप फल भी क्षणिक और अस्थायी होते हैं । कई बार तो ऐसा पौदगलिक सुख भी नहीं मिलता। ऐमा क्रियाफल तो चारगतियो मे भटकाने वाला और मसारवृद्धि का कारण है। सम्यग्दृष्टि मात्मा के लिए वह श्यिा उपादेय नही हो सकती।
पहले हम पाच प्रकार की क्रियाओ का वर्णन कर चुके है । वे इस प्रकार हैं-विपक्रिया, गरलक्रिया, अननुष्ठान क्रिया, तदहेतु क्रिया और अमृतक्रिया। इन मे मे प्रथम तीन क्रियाएँ चारो गतियो मे भ्रमण कराने वाली हैं । शेप दो क्रियाएँ मोक्षप्राप्ति की कारणभूत है । ज्ञानशून्य क्रियावादी प्रथम की तीन क्रियाओ से देव-नरकादि चारो गतियो मे भटकता रहता है । अत प्रभुचरणसेवारूप क्रिया शुद्धात्मप्राप्ति या मोक्षप्राप्ति का फल देने वाली हो, वही उपादेय है ।
निष्कर्ष यह है कि संसार मे प्राय एकान्तक्रियावादी लोगो की पूर्वोक्त मान्यता के कारण प्रभुचरण-मेवा दुर्लभ है।
अगली गाथा में श्रीआनन्दघनजी तत्त्वज्ञाननिष्ठ लोगो के झूठे ममत्त्वयुक्त व्यवहार के कारण प्रभुचरण-मेवा को दुर्लभ बताते हुए कहते हैं
१ अनेकान्त का अयं यहाँ व्यभिचारी हेत्वाभासरुप दोष है, जिसका लक्षण
है- माने हुए कारण मे तदनुसार कार्य न होना या माने हुए हेतु के अनुसार साध्य का न होना । यहा कार्य . फल के साथ विमवादी कारण होने से व्यभिचार (अनेकान्त) दोष है ।