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वीतराग परमात्मा को चरणमेवा
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अन्ततोगत्वा चरणसेवा के सब अर्थों का पर्यवसान तो वीतराग के आज्ञानुरूप चारित्रपालन में ही होता है।
यही कारण है कि वीतराग पी चरणसेवा देवो के लिए भी दुर्लभ बताई है, नही तो स्यूलचरणसेवा या वाह्य द्रव्यपूजा देवो के लिए क्या दुर्लभ थी ? किन्तु देवो के लिए प्रभुचरणसेवा इसलिए दुर्लभ है कि वे मोक्षमार्ग की आराधना के लिए वीतरागदेव द्वारा प्ररूपित (आज्ञप्त) रागद्वेष, विषय-कपाय यादि को जीतने हेतु व्रत, तप, जप, मयम आदि व्यवहार चारिय तथा आत्मस्वरूपरमणतारूप निश्चय चारित्र का परिपालन नहीं कर सकते । देवता अवती होते हैं । उनमे व्रतनियमो का पालन नहीं हो सकता। इन्द्रियो के वैपयिक सुख मे मग्न देवो के लिए चारित्राराधनरूप आज्ञापरिपालन यानी प्रभुचरणो की सेवा दुष्कर है । इसीलिए कहा है-'सेवनाधार पर रहे न देवा' । अवाचक (मूक) तियंचो के लिए भी चरणसेवा लगभग अशक्य है और नारको के लिए लिए सदंव नाना दु खो मे मग्न रहने के कारण सेवाधार पर चलना अशक्य है । निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त चरणसेवा मनुष्यो मे जो सर्वविरति, आज्ञा के सर्वथा आराधक, अप्रमत्त महामुनि है, उनके लिए सुशक्य है।
अव अगली गाथाओ मे बताते हैं कि वीतरागचरणसेवा की धार (आज्ञा-परिपालनके पथ) पर चलना क्यो दुप्कर हैंएक कहे 'लेविये विविध किरिया करी, फन अनेकान्तलोचन न पेखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा रड़बड़े चारगति माहि लेखे ।।
॥धार० ॥२॥
अर्थ
कई लोग कहते हैं कि "वीतराग परमात्मा को चरणसेवा (आज्ञापालन) मे क्रिया भी आती है, इसलिए . (भावशून्य या ज्ञानशून्य अथवा विकृतभाव से) । व्रत, जप, तप, अनुष्ठान, द्रव्यपूजा आदि क्रियाएँ करके हम वीतरागप्रभु की सेवा आज्ञा का पालन करते है। परन्तु वे उसका नतीजा, (फल) जो विभिन्न प्रकार का है, आँखो से नही देखते (नहीं सोचते)। वे वेचारे अपनी आशा के अनुकूल अनेक फल की कल्पना करके (अथवा वे अनेक फल देने वाली) क्रिया (अज्ञानवश) करते हैं जिसके कारण वे चार गति मे भटकते हैं, चक्कर लगाते फिरते हैं।