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अध्यात्म-दर्शन
भाप्य
वीतरागवरणमेवा के अज्ञानजनित प्रकार बहुत से लोग ऐमा मोचते है कि वीतरागदेव पी चरणसेवा हमारे लिए कुछ मी कठिन नहीं है। वीतरागप्रभु की आज्ञा जपादि विविध मियाग करने में है। क्रियाएं करने से ही प्रभुमेवा हो जायगी। क्योकि यह एका सिद्धान है-'या या क्रिया सा सा फलवती' जो जो क्रिया होती है, उसका कुछ न कुछ फल होता ही है । ऐसे लोग या तो अज्ञानवश लोक-परलोया की पिनी न किसी कामना के वशीभूत हो कर कोई न कोई अनुष्ठान या क्रिया भगवान् के नाम की ओट मे करते रहते है, अथवा क्रिया का मर्म समझे बिना ही क्रिया के साथ शुद्ध आत्मस्वरूप का लक्ष्य चूक कर शुद्धभाव ने शून्य प्रिया परमात्मा का नाम ले कर करते रहते है । कई दफा तो वे बहुत कठोर (जप, तप, कप्टनहन आदि की) क्रिया करते है, परन्तु उनके पीछे कोई विचार या ज्ञान नहीं होता, वे नियाए केवल वृथाकष्ट बन जाती है। साधक ममलता है कि मैं इन क्रियाओ को भगवान के नाम ने करता हूं, इसलिए भगवान प्रसन हो जाये, इस प्रकार प्रभु की चरणसेवा हो जायगी। परन्तु उन्हें यह समस नहीं कि प्रियाएँ करने मात्र में प्रभुमेवा नहीं हो जाती या निर्धारित अभीप्ट परिणाम । नहीं आ मकना जो क्रियाएँ किसी इहलौकिक या परलौकिक कामना के बम हो कर की जाएंगी, उनका फन तो मिलेगा, पर उन नियाओ जैसा फल नहीं मिलेगा, जो किमी भी म्वार्थ या इहलौकिक परलौकिक कामना मे रहित हो कर की जाती है। वे अनीप्टमोक्षफलदायिनी होती हैं, परन्तु शुभ अथवा अशुभ परिणामी के साथ की जाने वाली नियाएँ समारफलदायिनी होगी। किमी प्रकार का विचार किये बिना अघाच ध अज्ञानपूर्वक भगवान का नाम ले कर यन्नवत् क्रिया करने से भी, जो उन क्रियाओ का अभीष्टफल (कर्ममुक्तिस्प) मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता । उनका अनेकान्त १(व्यभिचारी) फन मिलता है, जो क्रिया के ईष्टप्रयोजन के विरुद्ध होता है, इस बात की वे जानशय क्रियावादी जपनी विवेक की आँखो से नही देखते, यानी वे किया के नतीजे पर सोचे-विचारे विना ही प्रभु का नाम ले कर अधाधु ध क्रियाएँ करते है । ऐसे लोग भगवान् की आनापालन का दम भरते है, लेकिन यथार्थ में वह समार की गेवा होती
है।