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वीतराग परमात्मा की चरणसेवा
२८१ ने अतिदुर्लभ चार वातो मे से एक सयम (चारित्रपालन) मे आत्मा के पुरुपार्थ को ' दुर्लभ कहा है।
सवाल यह होता है कि ऐसी प्रभु-चरणसेवा इतनी दुष्कर-दुर्लभ क्यो है ? इसका समाधान यद्यपि अगली गाथाओ मे स्वयमेव श्रीआनन्दघनजी ने किया ही है, तथापि सक्षेप मे इसके उत्तर मे यो कहा जा सकता है कि आत्मा अनादिकाल मे आत्मस्वरूप मे रमण (परमात्म-चरण) की धारा पर अखण्डित--अविच्छिन्नरूप से चलने मे भूल करती आ रही है । वह भूल क्यो होती है ? कैसे होती है, इस विषय मे वास्तविक जिम्मेवार तो आत्मा स्वय ही है, निमित्तरूप से जिम्मेवार द्रव्यकर्म, परपदार्थ आदि कारण वताये जाते हैं । जो भी हो, आत्मा के पुरुषार्थ की कमी ही परमात्म-चरणसेवा मे बाधक कारण है । असावधानो (प्रमाद) ही आत्मा को नीचे गिराती है, ११ वें गुणस्थान पर पहुंची हुई उत्तम आत्मा का ठेठ दूसरे गुणस्थान तक पतन होने मे वही कारण है । पूर्णतया आजाराधना-~-यथाख्यातचारित्र मे-वारहवे गुणस्थान मे होती है, वही प्रभुचरणसेवा है, वहाँ तक पहुँचना कितना दुर्लम है? इसे प्रत्येक साधक जानता है । उसके बीच में कभी सम्यग्दर्शन मे, कमी सम्यग्ज्ञान मे और कमी सम्यक्चारित्र-मे अन्तरायभूत कितने ही बाधकतत्व आते है, मोह उन सबमे प्रधान है । राग,द्वेष, काम, क्रोधादि कषाय आदि को जीत कर ही भगवच्चरणो के समीप पहुंचा जा सकता है। इनके जीतने का मार्ग भी पकड लिया, साधक का वेप भी धारण कर लिया, और महाव्रतो का स्त्रीकार भी कर लिया, किन्तु इतने मात्र से इन बाघ कतत्वो को जीता नही जा सकता । इन्हे जीतने के लिए सतत सावधानी, सदा अत्मस्वरूपलक्ष्यी क्रिया, आत्मलक्ष्यी ज्ञान और मोक्षमार्ग या परमात्मतत्व पर अखण्ड अविचल श्रद्धा रखनी आवश्यक होती है । जरा-सा भी चूकने पर झट से ये वाधक तत्व आत्मा को दवा देते हैं , पीछे या नीचे धकेल देते हैं , क्योकि तलवार की धार पर नाचते हुए कदाचित् गिर भी जाय तो उसके हाथ-पैरो को ही चोट
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देखिये उत्तराध्ययन सूत्र मे--
चत्तारि परमगाणि दुल्लहाणीह जतणो । माणुसत्त सुई सद्धा सजममम्मि य चोरिय ।