________________
वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
२७६
=लीनतारूप चारित्र) की सेवा प्राप्ति की प्रार्थना है । अथवा परमात्मपद (वीतरागपद मुक्तिपद) प्राप्त करने की यह प्रार्थना है । तात्पर्य यह है कि आनन्दघनजी व्यवहारदृष्टि से निरतिचार चारित्र-पालन करके, निश्चयदृष्टि से स्वरूपरमण-रूपचारित्र-पालन करके 'तव सरर्यास्तवाजापरिपालनम्' के अनुसार परमात्मा की आज्ञाराधनारूप सेवा करना चाहते हैं ।
सारांश विमलनाथ तीर्थकर (परमात्मा) की इस स्तुति मे परमात्मा को स्वामी (आदर्श मान कर दिव्यनेत्रो से उनके सर्वांगीण दर्शन के रूप मे उनके नयन, चरण, मन, दीदार, आत्मा, आकृति आदि समस्त अगो की सेवा करके श्रीमानन्दघनजी एक अध्यात्मरसिक सेवक का दायित्व और कर्तव्य सूचित करते है। इसीलिए अन्त मे परमात्मा की सांगोपाग सेवा प्राप्त होने की याचना करते
है।