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अध्यात्म-दर्शन
मज दीजिए रे इसके लिए वे भगवान मा ध्यान बागम ती अर्ज है, और वह भी आध्यात्मिक है, उस पर तो आपको ध्यानाहीतगा। क्योकि में आपका नेवक बना है। बापो आदेश-नि नार में चलता आया हूँ और चलन का प्रयत्न करूगा । 3 स्मा: '.- परमात्मपद को सेवा । इसी तरह की प्रार्थना अन्य आपायर्याय नाभी की । यह प्रार्थना मिर्फ आत्मविकान की सूचना है।
यद्यपि वीनरागप्रभु किसी को कोई आध्यात्मिा शक्कि भी दत नहीं, किन्नु जिमका उपादान प्रथा हो, उसे वे आध्यात्मिा शक्तिशात होने में निमित्त बन सकते है। जैसे गुरु गिप्य में जानने जान उंदैनना नहीं किल योग्य शिप्य हो, जिज्ञासु हो और आराधना-माधना के लिए उबत हो तो गुर उमको जानवृद्धि या ज्ञान की अभिव्यक्ति मे निमिन बन जाते हैं। इसी प्रमान नहीं श्रीआनन्दघनजी की परमात्मा इस आध्यात्मिक शक्ति की याचना के पीछे भी यही रहस्य है कि परमात्मा की चरणगेवा के लिए गुरुपायं तो वे स्वय करेंग ही, इसीलिए इस स्तुनि मे पहले वे परमात्मा के चरणों की भव्यता, निर्मलता एव उनके अनुपमेय व्यक्तित्व की महिमा का कयन कर चुके है । इसी में आरपित हो कर वे समार की ममम्त जाकपंक व मनोज वन्तु मो को तुन्छ और हेय समझ कर एकमात्र परमात्मा के चरण गर्ने का नेवार हुए है। हृदय की प्रबन उर्मियो मे उद्भूत उद्गार है ये । ऐनी प्रयत्न भनिभावना से की गई प्रार्थना सफल भी होती है । परमात्मा जब अपने आध्यात्मरमिक आत्ममाधक भक्त की पुकार को जपने ज्ञान में जानते है तो प्राय उनके निमित्त मे जिनामुनक्त के अतर मे ज्ञान का महाप्रकाश प्रकट हो जाता है । भगवद्गीता की भापा में कह तो यह प्रार्थना एक जानी भक्त की प्रार्थना है, जिसमे भगवान् मे और किसी चीज की याचना न हो कर परमात्मपद (निश्चयदृष्टि ने शुद्ध जात्मस्वरूप में रमणता
१- 'मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाण' (आपको चरणसेवा मुझे भव भव (जन्म-जन्म) मे मिला करे), 'तन्मे त्वदेशरणग्य शरण्य भूया' (एकमात्र आपकी शरण में आये हुए शरण लेने योग्य प्रभो | आपको शरण (सेवा) प्राप्त हो ), सिद्वा सिद्धि मम दिसंतु। २ क्योंकि पद या चरण कहा जाता है।