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१३ श्रीविमलनाथ जिन-रतुति
वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार (तर्ज-ईडर आया आवली रे, ईडर दाडिम द्राक्ष, राग-मन्हार)
दुःखदोहग दूरे टल्यां रे, सुखसंपदशु मेट;
घोंगधणो माथे कियो रे, कुरण गंजे नर-खेट ?। विमलजिन, दीठां लोयण आज, मारा सीध्यां वांछित काज ।।
विमलजिन० ॥
अर्थ तेरहवें तीर्थफर श्रीविमलनाय वीतराग परमात्मा को आज मैंने नेत्रों मे देखा , इससे मेरे भूतकाल के सभी दु.पोत्पादक कर्म, वर्तमानकाल मे उन दु खो का अनुभव तया भविष्यकाल की आफतो से भरा दुर्भाग्य, ये सब मिट गये, सुख-सम्पदा के माय भेंट हुई। आज मैंने अपने सिर पर जबर्दस्त स्वामी को धारण किया है, इसलिए कौन दुप्ट (खल) जन मुझे जीत सकता है या फिर कौन तुच्छ मनुप्य के अधीन हो सकता है ? अथवा आत्मगुगो का शिकार करने वाला कौन मिथ्यावादी मनुष्य मुझे हरा सकता है ? इन आस्मिक चक्षुओ से रागढ पविजेता प्रभु को देखने [गम्यग्दृष्टि से मेरे समस्त मनोवाचिन [सम्यग्दर्शनादि] कार्य सिद्ध हो गए।
भाप्य
परमात्मा का साक्षात्कार क्यो, क्या और कमे? श्रीआनन्दघनजी ने पूर्वस्तुति मे तीन प्रकार की चेतना का वर्णन करके अन्त मे ज्ञानचेतना पर ही स्थिर रहने पर जोर दिया था, परन्तु जो व्यक्ति कर्म और कर्मफल के साथ अपनी चेतना को लगा देता है, वह नानचेतना मे स्थिर नही रह सकना । ज्ञानचेतना मे स्थिर रहने का प्रयोजन यही है कि वह धीरे धीरे क्रमश आगे बढ कर परमात्मसाक्षात्कार तक पहुंचे । अन्तिम ध्येय तक पहुंचना ही ज्ञानचेतना मे दृढतापूर्वक टिके रहने का प्रयोजन है। पर