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अध्यात्म-दर्शन
व्यवहारदृष्टि से इसका मगत जयं यह है कि आप ऐसे परम उपारपुरप है कि किसी को भी अपने ने हीन नहीं मानते। लोकव्यवहार में नो स्वामी सेवक को कदापि अपने वरावर का स्वामी नहीं बनाता, भले ही गेवक मालिक की अत्यन्त लगन से विनय-भक्तिपूर्वक सेवा करता हो । किन्तु जब सम्यग्दृष्टि भक्त परमनिर्मलस्प वन कर उदार प्रभु का ध्यान करता है तो उसे शुद्धात्मस्वरप का सानिध्य प्राप्त होता है, गवा करने वाले को प्रभु जगने से भिन्न न रहने दे कर यानी सेवक का सेवकत्व मिटा कर उसे अपने बरावर का परमात्मा बना देते हैं , स्वामी-सेवक का भेद मिटा देते है। इसलिए साधक कहता है-'मैं तो आप जैने परम उतार स्वागी को पा नार धन्य है, कृतकृत्य हूं।'
व्यवहारदृष्टि से इसका अर्थ यह भी हो सकता है-प्रभो । आप जैसे परम उदार परमात्मा को पा कर मैं भी अलम्य लाभ से युक्त बना हूँ। क्योकि मुझमे भी आप की तरह अपने मे हीन-दीन या जरूरतमद या दुखी को तनमन या साधन का दान देने या त्याग करने की मावना पैदा हुई । आप परमदानी हैं, यह तो सारा ससार जानता है कि आपने मुनि-दीक्षा ग्रहण करने से पहले एक वर्ष तक प्राय लगातार दान दिया और जगत को दान देने की उदारता गिखाई।
तीसरा कारण : साधक के मन के विश्राम इसी कारण को लेकर आनन्दघनजी कहते है.'मन-विसरामी' आप मेरे मन को विश्राम देने वाले हैं । मेरा मन दुनियाभर में कई दफा तो ऊलजलूल वातो मे भटकता रहा, विपयो, कपायो मे व दुर्भावो में मेरा मन भटका, किन्तु अब आपका चरणकमल पकड लिया तो वह इन सब विपयो मे विश्राम नहीं पाता, वह तो एक मात्र आप मे ही निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मस्वरूप (स्वभाव) मे, च्यवहारणि से परमात्मा (वीतराग) मे ही विश्राम पाता है। उसकी थकान ध्यान करने से ही मिटती है। और जगह तो वह विश्रान्त के बदले श्रान्त हो (यक) जाता है । मेरे मन को प्रसन्न करने वाला आपके सिवाय आराम का स्थान कोई नहीं है। प्रभो । मेरा मन विविध पदार्थों मे भटका, उसने विविधरूप धारण किये, फिर भी इसे तृप्ति न हुई, उसके भ्रमण करने का चचल स्वभाव नहीं मिटा । इस