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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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मा गुओ मे आपका शरीर बना है, वे परमाणु जगत् मे उतने ही थे । अत तीनो भुवन मे एकमात्र सुन्दर हे जिनवर | आपके जैसा किसी दूसरे का रूप नही है । आपका कोई उपमेय ही नहीं है । क्योकि गम्भीरता समुद्र के साथ घटित हो सकती है। स्थिरता- धैर्य मे पर्वत की उपमा दी जाती है । निर्मलता-स्वच्छता के लिए शरदऋतु के दिन की उपमा दी जाती है । मनोहरता की चन्द्र के साथ, विशालता की पृथ्वी के माय, तेजस्विता की मूर्य के साथ एव वलिप्ठता की पवन के साथ उपमा घटित हो सकती है। परन्तु आप (तीर्थकरप्रभु) के अपरिमित माहात्म्य के साथ तुलना की जा सके ऐमा कोई उपमान ही जगत् मे प्रतीत नहीं होता । उपमा समान गुणो वालो की दी जाती है । परन्तु जो गुणो मे हीन हो, वह समान कैसे बन सकता है ? अत आपके साथ गुणो मे समानता (वरावरी) कर सके ऐसी कोई वस्तु दुनिया मे नजर नही आती। तो फिर आपने अधिकता रखने वाली वस्तु जरत् मे और कोई हो सकती है ? नही हो सकती, इसमे कोई आश्चर्य नही । और हीन के साथ तो उपमा दी ही नही जा सकती । इसलिए आप अनुपम है।" इसी भाव को व्यक्त करने लिए श्री आनन्दघनजी कहते हैं.--'उपमा घटे न कोय ।' साथ ही यह भी कह दिया है कि 'निरखत तृप्ति न होय ।' मतलव यह है कि आपकी देहरचना मानो अमृत का सार निकाल कर बनाई गई हो, इस कारण उसे किसी भी पदार्थ से उपमा नहीं दी जा सकती और ऐसा मालूम होता है कि उसे एकटक देखता ही रहूँ । उसे देखते-देखते नेत्रो को तृप्ति ही नहीं होती । शान्तमुधारस से ओतप्रोत आपकी अमृतमयी देहाकृति देख कर तीनो लोक के इन्द्र-नरेन्द्र आदि आपके चरणकमलो मे झुक कर अपने आप मे परमशक्ति अनुभव करते है।
स्थूलदर्शन के दूसरे प्रकार की दृष्टि मे इसका अर्थ कई विवेचनकार यो फरने हैं-आपकी मूर्ति (आपके देह की प्रतिकृति) अमृत से परिपूर्ण बनाई गई
१ देखिये सिद्धसेन दिवाकरमूरिकृत पञ्चमी द्वात्रिंशिका मे'गम्भीरमम्बुनिधिनाऽचल स्थिरत्वं, शरद्दिवा-निर्मलमिटमिन्दुना। भुवा विशाल, यतिमद् विवस्वता, बलप्रकर्ष पवनेन वर्ण्यते ॥३॥ गुणोपमान न तवान किञ्चिदमेय-माहात्म्यसमञ्जस यत । समेन हि स्यादुपमाऽभिधान, न्यूनोऽपि तेनाऽस्ति कुत समान ॥४॥"