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अध्यात्म-दर्शन
को सोरम से युक्त चरणकमल (स्वभावरमणचारित्र] मे इतनी लीनता हो गई । है। कि दूमरी मोहक वस्तुओ की तरफ वह जाती ही नहीं है।
भाप्य
परमात्मा के चरणव मन में लीन होने के बाद । पूर्वगाया मे श्री आनन्दघनजी ने वीतराग-परमात्मा के शरणागल का माहात्म्य बनाते हुए कहा था कि उनमे भायलक्ष्मी गा पिपास होने में यह सर्वतोमुखी आकर्षक है। अत बय ग गाथा में यह बताया कि मेरा मानचेतनायुक्त भावमन (आत्मा) परमात्मा के शरणम को साकार तना आकर्पित हो गया है कि वह अन्य भौतिक गानमारको रमणीग म रमणीय वस्तु या स्थान की ओर जाता ही नहीं। उन्हें अत्यान्य नासता है ।
परमात्मा के चरणकमल मे क्या नाकर्षण हैं ? प्रश्न होता है कि परमात्मा को चरणयामल में गनीमर यो नाकपित हो जाता है? इसका समाधान इसी गाया में दिया गया है.---'गुणमकरन्द जैसे भौरा कमन की पराग को पा कर तृप्त हो जाता है, यह गुगन्धित पगग मे इतना लोन हो जाता है कि उसे अपने तन की गुध नरी रहती, यामल गो काट कर बाहर निकलने की पत्ति होते हुए भी वह रात को कामकोप में वन्द हो जाता है । इतनी लीनता गीरे में होती है। इसी प्रकार मारे गे एक गुण यह भी होता है कि वह विष्ठा आदि दुर्गन्धयुक्त पदार्यो पर कभी नहीं जाता, तथा सुगन्धित कमल या तापके सिवाय दनिया की चाहे जैसी रगविरगी, सुन्दर, मनोमोहक या आकर्षक जयवा कोमल, स्वादिष्ट पदार्थ या मनोरम सगीत वाला गुरम्य स्थान भी क्यो न हो, वह वहां नहीं जाता और न वहाँ बैठना चाहता, वैसे ही दिव्यनेनो से परमात्मा को दर्शनपिपासु मक्त साधक का मनरुपी (भावमन-आत्मा) मधुकर भी जव परमात्मा के अनन्त-आत्मगुणरूपी पराग से परिपूर्ण परमात्मतरणकमल (आत्मरमणतारूपी चारित्र) को देख कर वही लीन हो जाता है, वही तृप्त हो जाता है। वह आपके गुणपराग से युक्त चरणकमल मे इतना आकर्षित हो जाता है या आत्मा के अनन्तगुणो से से युक्त वीतराग के चारित्र (मागं) का उपासका (सम्यग्दृष्टि) बन जाता है, तब । उमको गन को विश्व के सभी मोहक या रंगीन पदार्थ,तुच्छ लगने लगते हैं । वह