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अध्यात्म-दर्शन पदार्थ आदि की प्रचुरता तालार्य गह है कि मनुष्य के गन पो भापित करने वाले तियंचलोक, ऊबलोक, ज्योतिर्लोक और अघोतोक, उन सबमे जो सर्वोच्च गुख के केन्द्र हैं, लुगावने पद या पदार्थ है, मिथ्याप्टि नागारिक लोगो का मन झटपट इन मे गे किसी के लिए लालायित हो सकता है ।
'मदरधरा' गर में यहा तिलोम का गोल है । जहाँ नन्दनवन के या चनारी जादि के सुखा मा आकर्षण है। 'इन्द्र' गब्द से यहाँ ऊर्व लोक का मोत है, जहाँ वैमानिक देवी-देव एव देवेन्द्रो के सुख है । चन्द्रपद से यहाँ ज्योतिर्लोक का मकेत है, जहां सूर्य, चन्द्रमा आदि के लोक या पद का मुख हे । तथा 'नागेन्द्र' शब्द मे अधोलोकवासी भवनपति तथा व्यन्तर देव-देवेन्द्र आदि का गोत है, जहाँ इन दिव्य सुखवैभव है।
सामान्य व्यक्ति का मन मसार की इन गुपनम्पन्नतायुक्त प्रेय वस्तुओं की ओर सहमा आकर्षित हो सकता है, परन्तु जिन मात्ममाधक (सम्यग्दृष्टि) का गनरुपी भ्रमर परमात्मा (गुद्ध आत्मा) के गुणोरूपी गुगन्धित पगग गे युक्त चरणकमन (जात्मरमणतारूपी चारिन में लीन हो गया है, उमे ये सब वस्तुएँ तुच्छ व असारप्रतीत होती है । क्योकि वह अपने दिव्य सम्यग्दर्शनज्ञान से यह भलीभांति समझ जाता है अयवा उनके दिल दिमागमे यह बात अच्छी तरह अकित हो जाती है कि मनुष्यो या देवो के जो सुखदायक भोग्य पद, पदार्थ, या इन्द्रियविपय हैं, वे सब पुण्यकर्म से मिलते है। जहां तक पुण्य है, वहीं तक इनका अस्तित्व है। परन्तु ये सव पद, पदार्थ या विपयसुख क्षणिक व नाशवान हैं, सुखाभासदायक है । पुण्यनाश के साथ ही इन सुखाभासो का भी नाश हो जाता है । इस कारण इन सब पदार्थों का वियोग होने मे मतृप्ति रहती है, जो कि दु ख का कारण है , जबकि आत्मा-परमात्मा के गुण तथा उनमे रमण करने से जो मुख-प्राप्त होता है, वह अविनाशी है। उनमे डूब कर आत्मा तृप्त हो जाती है । उस आत्मसुख के सामने इन सासारिक पदार्थों से होने वाले सुख कुछ भी नहीं है, नगण्य हैं, वे किसी विसात मे नही है। यही कारण है कि वीतरागमार्ग के उपासक सम्यग्दृष्टि अध्यात्मरसिक श्रीआनन्दघनजी हृदय से पुकार उटते हैं-प्रभो । मेरा मनमधुकर शुद्ध आत्मगुणोरूपी पराग रो युक्त आपके पादपद्म में इतना तनी हो गया है कि वह