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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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शाश्वत स्वर्णमयमुमेरुगिरि की भूमि, इन्द्र-लोक, चन्द्रलोक, या नागेन्द्रलोक आदि सर्वोच्च सुख का आभास कराने वाली वस्तुओ को तुच्छ मानता है, इन्हें जरा भी नहीं चाहता । इन सवका सुख परमात्मपद (शुद्वात्मा) के सुख के पासग मे भी नहीं आता । परमात्मा के चरण मे लीनना का जो असीम सुख है, उसके सामने ये सब गुख निकम्मे या फीके मालूम होते हैं। कमल के सौरभयुक्त पराग मे मस्त बना हुआ भौरा जव तृप्त हो जाता है, तव उसके लिए दुनिया की अच्छी से अच्छी मानी जाने वाली वस्तु भी तुच्छ हो जाती है, वह उनकी ओर आँख उठा कर नही देखता, वही वैठा हुआ अपनी मस्ती मे गुनगुनाता रहता है। वैसे ही परमात्मगुणो से युक्त चरणकमल मे जब मनरूपी भ्रमर मस्त बन कर जम जाता है, अथवा गुद्ध आत्मगुणो की सौरभ से जिस आत्मा का ध्यान सुवासित हो जाता है , तव वह सर्वथा तृप्त हो जाता है, तब उसके लिए भी ससार की अच्छी मानी जाने वाली तमाम वस्तुएँ तुच्छ हो जाती है। वह परमात्मा के चरणो मे लीन हो कर 'तू ही तू ही' की रटन से तादात्म्यसुम्ख का अनुभव करने लगता है। उसके मन-वचन-काया आदि सव आत्मगुणो के प्रगट करने मे लग जाते हैं:
यही कारण है कि अगली गाथा मे श्रीआनन्दधनजी आराध्य-आराधक (हत) भाव से परमात्मा को अपनी आत्मा का आधार और मन का विश्रामस्थल बताते हुए कहते हैं
साहेब समरथ तु धणी रे, पाम्यो परम उदार । मनविसरामी वालहो रे, आतमचो आधार ॥ विमल०॥४॥
अर्थ हे साहिब प्रभो । आप ही मेरे समर्थ शक्तिशाली स्वामी (मालिक) हैं आप सरीखा अत्यन्त उदार स्वामी (पति) मैने पाया है । इसलिए आप ही मेरे मन (ज्ञानचेतनायुक्तआत्मा) के विश्राम-स्थान हैं, आप ही मेरे प्रियतम हैं, मेरी आत्मा के आधार है।
भाज्य
आत्मा-परमात्मा का स्वामी-सेवक-सम्बन्ध पूर्वगाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने बताया है कि मुमुक्षु आत्मा का मन परमात्म-चरण में लीन बन कर वयो संसार की रार्वषेष्ठ सुखदायक मानी जाने