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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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महाप्रातिहार्यरूपी लक्ष्मी के कारण उनकी यशकीति फैलती है, दिव्यजन उनकी सेवा मे रहते है।
यही कारण है कि लक्ष्मी अपने अस्थिर और पकिल (कीचड से गदे) स्थान को छोड कर लक्ष्मीवान और पुण्यवानप्रभु के चरणकमल मे आ कर वसी हुई है, क्योकि उनका चरणकमल निर्मल और स्थिर है । अथवा यह अर्थ भी सगत हो सकता है कि भगवान् वीतराग का निर्मल ययारयातचारिकरुपी चरणकमल स्वभाव से ही स्थिर है, उसे देख कर या अनन्त-ज्ञानादिचतुष्टय लक्ष्मी वहाँ रहती है, उसे देख कर पामर प्राणी अपनी पामरता का ध्यान करता है और हर प्रकार से मोहमल उत्पन करने वाली कमला-भौतिकलक्ष्मी का त्याग करता
निष्कर्प यह है कि जहाँ परिग्रह है, वहाँ आरम्भ (हिंसा) है, आरम्भ और परिग्रह मे लीन होने वाले पामर प्रणियो को सुख कहाँ ? मुमुक्षु जव अन्तरात्मा से परिग्रह का त्याग करता है, तभी स्थिरस्वभाव वाला व चारित्रवान बनता है । निर्गल (निरतिचार) यथाय्यातचारित्री होने पर उस आत्मा को अनन्तज्ञानादिचतुष्टय-लक्ष्मी उत्पन्न होती है।
साराश यह है कि मुमुक्ष आत्मा भगवान् के चरणकमल को अनन्तपारमार्थिक भावलक्ष्मी का निवासस्थान देख कर स्वय भी भीतिक लक्ष्मी का लोभ सर्वथा छोड कर उनके चरणकमल मे लीन हो जाना चाहता है।
इसके अतिरिक्त वीतरागप्रभु के चरणकमल मे और क्या आकर्पण है ? इसे श्रीआनन्दघनजी अपने अनुभव से अगली गाथा मे बताते है
मुज मन तुज पदपंकजे रे, लीनो गुण-मकरंद । रंक गरणे मदरधरा रे, इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र । विमल ० ॥३॥
अर्थ आपके दर्शन के बाद आपके चरणकमल का इतना आकर्षण हो गया है कि मेरा मन (ज्ञानचेतनायुक्तआत्मा) आपके गुगो-रुपी पराग से युक्त चरण(आत्मरमणतारूप चारित्र) मे (अब इतना) लीन हो गया है कि स्वर्णमयी मेरुपर्वत की भूमि को तथा इन्द्र, चन्द्र या नागेन्द्र के पद अथवा स्थान (लोक) को भी वह तुच्छ समझता है । उसे आपके (शुद्ध आत्मा के) अनन्त-ज्ञानादिगुणो