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अध्यात्म-दर्शन
कोई यह वह सवना है कि जगत में तन धर्मों, गम्पदायों, गों, पंगा या दर्शनो के होने हा भी परगात्मा नो वर्णन गयो दुर्तग हो रहे है। गनी धर्म, मन, पप आदि परमात्मा के दर्शन करने. प्रभु-नाक्षात्कार कराने का दावा करते है, फिर यया कारण है कि परमात्मा के दर्शन इतने दुप्माण हो रहे हैं ? जहाँ हनने धर्म और धर्मो के संस्थापा हो, जहाँ विविध धर्मावना', परमात्मा के पुन, पैगम्बर, मसीहा, या अवतार मौजूद हो, वहाँ भना परमात्मा का दर्णन इतना कठिन क्यों होना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में स्वय आनन्दघनजी इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा कहते है.--' मत मतभेदे रे जो जई पूछोए, सहु थापे अहमेव' इसका तात्पर्य यह है कि चाहे जिग पथ, मत, मम्प्रदाय या दर्शन के केन्द्र या धर्मस्थान मे जा कर पूछा जाय, नवंय प्राय मिथ्या आग्रह, अपनी मान्यता की पकड, अपने मन पर गच्चाई को चाप लगाने का अभिनिवेश दिखाई देगा। इसलिए एकान्तप्टिपरायण, मतानही प्राय यही कहेंगे-हम कहते हैं, वहीं प्रभुदर्शन ना मत्वमार्ग है, हमारे मत, पथ या सम्प्रदाय आदि के सिवाय किमी पथ, मत आदि को सत्य के दर्णन नहीं हुए, न हमारे सिवाय किनी ने आज तक प्रभुदर्शन का रहस्य (या सत्य) प्रगट किया है।' अथवा वे कहेंगे-"हमारे धर्म-सम्प्रदाय या मत-पथ में बनाने गए ईगवर या भगवान् ही परब्रह्म परमान्मा हैं, उनके दर्शन मारे मत, पथ वा सम्प्रदाय मे शामिल होने पर ही होंगे। हमे गुरु स्वीकार कर लो, बम, तुम्हे परमात्मा के दर्णन बहुत जल्दी करा देंगे।" इस प्रकार एक या दूसरी तरह से मभी अपनी-अपनी मान्यताओ को सत्य बता कर जिज्ञासु व्यक्ति के कान, नेत्र, और मुह बद कर देते है, वे न दूसरे की बात सुनने देते हैं, न दुसरो की सत्य वात देखने-समझने देते है, न किमी विषय में तर्क करने देते हैं । इस प्रकार जिज्ञासु एव भद्र परमात्मदर्शनपिपासु व्यक्ति इन सम्प्रदायो या मतपयो के भवरजाल मे फस जाते है। एकान्त आग्रही लोग कोई शका . या तर्क भी प्राय नहीं करने देते, वल्कि शंका या तर्क करने वाले को या तो वे अधर्मी, नास्तिक बनाते हैं, या फिर वे अधर्मी, मिथ्याप्टि या नास्तिक हो जाने का डर दिखा कर चुप कर देते है। अनेकान्तवाद के उपासक भी प्राय मताग्रह या मतान्धता के शिकार बन जाते है, और अपने ही मत को सत्य मिद करने मे एडी से चोटी तक पसीना बहा देते है। विविध्र दर्णन भी