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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
परन्तु इन सबके माथ पुर्वोक्त प्रकार मे तदनुकूल भावनाओ को जोडना आवश्यक है। क्योकि इन सब द्रव्यपूजाओ का उपयोग इतना ही है कि ये सब भावपूजा का निमित्त बने । अकेली द्रव्यपूजा दुर्भाग्य और दुर्गति का नाश करने वाली नहीं है । इसी कारण आरम्भ-परिग्रह के त्यागी, अनगार (मुनि) या साधुसाध्विगण द्रव्यपृगा नहीं करते, वे मिर्फ भावपूजा ही करते है । इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने भावपूजा पर जोर देते हुए कहा है-~भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहग्गदुर्गतिछेदे रे ।
___ भावपूजा पया, केसे और फिसलिए ? वास्तव मे द्रव्यपूजा नो भावपूजा तक पहुँचाने हेतु । गृहस्थसाधको (देशचारित्री) के लिए एक माधन हो सकती है । जैगे-नन्हें गिशु को खिलौने दे कर या चित्र बता कर उनके जरिये विविध पदार्थो का बोध कराया जाता है, परन्तु आगे की कक्षाओ मे पहुंचने पर उसे चिनो या खिलोनो की जरूरत नही पडती, वह उन्हें छोड़ देता है और अपनी भावना और चिन्तनशक्ति के जरिये विविध अनुभव प्राप्त कर लेता है। मभव है, इसी प्रकार आचार्यों ने स्थूलबुद्धि प्राथमिक भूमिका के लोगो के लिए मूर्ति या किसी प्रतीक मे परमात्मा की छवि की कल्पना करके या उगमे परमात्मा का आरोपण करके विविध द्रव्यो से म्यूल पूजा करने का विधान किया हो, परन्तु उनका मूल लक्ष्य और मुख्य प्रयोजन तो भावपूजा तक प्रत्येक जिनामु को पहुंचाने का रहा है। श्रीआनन्दवनजी ने भी इसलिए वारवार भावपूजा की ओर इगित किया है। ___ भावपूजा मे किसी वाह्य वस्तु का आलम्बन नही लिया जाता । उसमे अपने हृदय के तारो को भगवान के गुणो से जोडा जाता है। जहाँ किसी बाह्य द्रव्य का आश्रय न ले कर सिर्फ अपने मनोभावो द्वारा ही पूज्य की पूजा-भक्ति की जाती है, उनके चरणो मे त्याग, बलिदान एव सयम का नैवेद्य चढाया जाता है, उनके समक्ष प्रार्थना के रूप में अपनी आलोचना, गर्हा, आत्म-निवेदन, आत्मनिन्दना (पश्चात्ताप) व्यक्त की जाती है, स्तोत्रो, भजनो, स्तवनो और स्तुतियो के माध्यम से या ध्यान, चिन्तन, मनन, आदि से परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, वहाँ भावपूजा है। ___ इसलिए भावपूजा का कोई : एक ही प्रकार न- बता कर बहुविध प्रकार बताए हैं । चूंकि वीतरागपरमात्मा मे ; अनन्तगुण है, उन समस्त गुणो की