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अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा
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भाव आने के बाद से नैगमनय से अध्यात्म माना जा सकता है। अप्रमत्त भाव से ले कर १४वें अयोगीकेवली गुणस्थान तक तो परमनिश्चयनय का भाव-अध्यात्म कहा जा सकता है । उसी के उतार-चढाव के ये अनेक भेद है ।
अब अगली गाथा मे शब्द और अर्थ की दृष्टि से अध्यात्म का विश्लेपण करते है
शब्द-अध्यातम अर्थ सुणी ने, निर्विकल्प आदरजो रे । शब्द-अध्यातमभर्जना जारणी, हान-ग्रहण-मति धरजो रे ॥
श्रीध यांस० ॥०॥
अर्थ
जय
अध्यात्मशब्दमात्र जान कर उसका यथार्थ अर्थ सुनो और फिर समस्त . विकल्प छोड कर भावार्थ का स्वीकार करो। शन्दमात्र-अध्यात्म मे यथार्थता (सत्यता) हो भी सकती है, नही भी हो सकती है। यो समझ कर जिसमे आत्मसिद्धि होने मे शका हो, किसी प्रकार का कल्याण न होता हो, वैसे नामादि अध्यात्म का त्याग करो और जिस भाव-अध्यात्म से अपने निजात्म गुणो मे रमणता होने से स्वरूपसिद्धि होती हो, वहां उसे ग्रहण करो।
भाष्य
निर्विकल्प शब्द-अध्यात्म ही उपादेय है इस गाथा मे पुन निर्विकल्प भाव-अध्यात्म को अच्छी तरह ठोक-वजा कर अपनाने की बात कही है कि अध्यात्मशब्द को मुनते ही एकदम चौक मत पडो । सभव है, तुम्हे लम्बे-चौडे अध्यात्मशास्त्र के पोथो की अपेक्षा एक छोटे-से वाक्य मे अध्यात्म का सार मिल जाय । परन्तु सुनने के बाद उस पर विचार करो, उसे जाँचो-परखो और उसमे मे शुद्ध आत्मा के अतिरिक्त विकल्पमात्र को दूर करके उसे निर्विकल्पक रूप में अपनाओ। यह जरूर देखो कि उस अध्यात्म के साथ कही आगे-पीछे कोई परपदार्थ का (म्बार्थ, अभिमान दम्भ, द्रोह, मोह कामना आदि का) विकल्प तो नहीं लगा है ? जब तुम वास्तविक अध्यात्म का अर्थ समझ कर उसे अपनाओगे तो तुम्हे सच्चा आनन्द भाएगा, जिगकी तुलना में दुनिया की कोई भी वस्तु नहीं है। परन्तु आयात्म