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विविध चेतनाओ की हप्टि रो परम आत्मा का ज्ञान
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है। और परमात्मभाव - मुक्तिपद की ओर अग्रसर होता है। ज्ञानचेतना की साधना मे स्वय मे स्व का उपयोग, स्व मे स्वस्वरूप का भान करना होता है। यही सबसे बडी साधना है, यही सबसे बड़ा धर्म है। ज्ञानचेतना की अखण्डधारा सम्यग्दर्शन से बढ़ते-बढते परमात्मदशा तक पहुँच जाती है। यद्यपि शुद्ध ज्ञानचेत्ना के साथ भी छद्मस्थ को वीच-बीच मे शुभधारा अवश्य आती है। परन्तु शुद्ध ज्ञानचेतना का अत्यधिक बल होने से वे विकल्प अधिक देर तक नहीं टिक पाते । मन के शुभ या अशुभ विकल्पो को तोडने का एकमात्र साधन शुद्ध ज्ञानचेतना ही है।
निश्चयदृष्टि मे एकमात्र आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अपना नहीं है और वह आत्मस्वरूप की अविच्छिन्न स्थिति ही ज्ञानचेतना है।
परन्तु ऐसी जानचेतना अधिक समय तक अविच्छिन्नरूप से सामान्य । साधक मे टिक नहीं पाती, बीच मे शुभ का विकल्प आ जाता है, इसलिए आगे की गाथा मे चेतना के द्वितीय प्रकार-कर्मचेतना के बारे मे कहते है--
कर्ता परिणामी, परिणामो, कर्म ते जीवे करिए रे । एक-अनेकरूप नयवादे, नियते नर अनुसरिए रे ॥वासु०॥३॥
अर्थ परमात्मा शुद्धनय से निजस्वभाव का, तथा अशुद्धनय (पर्यायाथिक नय) की मुख्यता की अपेक्षा से स्वपर्यायो, भावकर्मादि का उत्पादक और विनाशक है। वह स्वपर्यायो का उपादानकारण और परपर्यायो की उत्पत्ति और विनाश का भी कारण (कर्ता) समझा जाता है । ऐसी आत्मा तथा प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील (परिणामी) है। कर्म भी उसका एक परिणाम है। परन्तु वह कर्म तभी बन्धनकारक होता है, जब जीव के द्वारा किया जाता है , यानी जब चेतना के साथ उसका संयोग होता है। वास्तव मे निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा एकरूप है और व्यवहारनय की दृष्टि से अनेकरूप है। यह सब नयवाद की दृष्टि से है । इसलिए हे मुमुक्ष साधक ! अन्त मे तो तुम्हें निश्चयनय से निर्णीत आत्मा का ही अनुसरण करना चाहिए।
भाष्य