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विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान
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स्वरूपनिधि या स्वगुणनिधि का भान ही नहीं रहता कि वह जिस आनन्द या सुख की खोज मे है, वह शाश्वन मुख या आनन्द कही भौतिक पदार्थो या इन्द्रियो के विपयो मे नहीं, बल्कि अन्तरात्मा मे ही है। किन्तु वह बहिर्मुखी होने के कारण सुख और आनन्द की खोज बाहर मे ही करता है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-निश्च एक आनन्दो रे ।
कर्मो के शुभ या अगुभ फल जैसे अज्ञानी को भोगने पड़ते हैं, वंसे ज्ञानी को भी भागने पड़ते हैं। लेकिन ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) आत्मा दुखरूप कर्मफल से बेचैनी नहीं मानता । और दुखरूपफल भोगते समय उसकी दृष्टि मुख्यतया घृणायुक्त या द्वेपात्मक नहीं होती। इसी तरह सुखरूप कर्मफल हो तो भी वह हर्षित या आसक्त नहीं होता। वह दोनो स्थितियो को भोगते समय समभाव मे रहता है ।
निष्कर्प यह है कि वीतराग पुरुप या सम्यग्दृष्टि आत्मा भी पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मो के कारण कर्मफलचेतना से युक्त होते हैं , लेकिन जहाँ साधारण (अज्ञानी या मिथ्याप्टि) आत्मा दुखरूप कर्मफल भोगते समय हायतोवा मचाता है, दूसरो (निमित्तो या मन कल्पित निमित्तो) को कोसता है, अपने उपादान (आत्मा) को नहीं देखता , तथा इस जन्म या पूर्वजन्मो मे स्वय द्वारा हत किन्ही अशुभ कर्मो के ही ये पल है, इस वात को नहीं मानता। वह अन्तर्मुखी हो कर आत्मस्वरूप का चिन्तन नहीं करता।
अत यह निश्चित समझो कि शुभाशुभकर्म का सुख-दुखरूप फल निघचयनय की दृष्टि से आत्मा का स्वरूप नही है , वह चैतन्य से भिन्न है । मुख और दुख ये पुद्गलपर्याय की अवस्थाएँ हैं । मन-वचन-काया की योगजन्य क्रिया कर्म का फल है। कर्म या कर्मफल के साथ आत्मा का सम्बन्ध नही। वल्कि निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ज्ञानदर्शनचारित्रमय या अनन्त-आनन्दमय है
और उसी निजम्वरूपानन्द मे मस्त रहती है । आत्मा की निर्गुण क्रिया से तो निश्चय एक आनन्द ही है , जो अनिवर्चनीय, अनन्त तथा अनुभवगम्य है। साधक को आत्मा की निश्चयनय की इस आनन्दमय दशा को ध्यान मे रखनी चाहिए । परन्तु साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि त्रिकाल एकस्वभावी (क्षायिकभावी) आत्मा, चेतन को या चेतनता मे परिणगन को नागी भूलती नहीं। जिमने जगे कर्म बाये होगे, उगगी आत्मा ताप हो जायगी , इगमे