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अध्यात्म-दन
रामपदार्थों की सामागस्प या सभेदाप गे हरा निगार जाननेतना है, जिने दर्गन कहते है लौर जीव-अजीव आदि मगन पायोमीनिया मे या भेदरूप से गाहक साधार माननेनना है, जिसे ना हो । प्रनार परमात्मा मे निराकार उपयोग और सावार उपयोग की दिया (आगनापार) प्रतिक्षण होती रहती है। अर्थात् आत्मा परमात्मा के परप को जानने की, जड (अजीव) से भिन्न चैतन्य (आत्मा) पो पहिचानने कोसिया होनी है, वह न दोनो प्रकारों के जरिये होती है।
प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म होते है, तो प्रत्येक आत्मा में भी पदार्थ के पूर्वोत्त दो घमाँ (सामान्य विशेष) को जानने की शक्ति होती है , जिने ज्ञानचेतना और दशननेतना पहने है। आत्मा में अगर जानचेतना न होती तो वह यह कैसे जान सकती कि जीवन परा है ? जगन् क्या है ? जगत् मे वितने द्रव्य हैं ? उनके नया-या लक्षण हैं? जीव और अजीव में क्या अन्तर है ? और उनका मापन में क्या सम्बन्ध है? आत्मा मे ज्ञानचेतना (मानशक्ति) होने से ही वह यह नब जान सस्ती है।
ज्ञानचेतना के दो भेद तो इसलिए किये हैं कि आत्मा पदार्थों को जान तो अवश्य सकती है, मगर वह किसी भी पदार्य को सहना विपल्म से उसके असली स्वरूप को पहिचान नहीं सकती। वह नमश ही जानती है। किसी चीज को देखते ही या स्पर्ग आदि होते ही पहले क्षण मे, गामान्यरुप से एक ऐसा आभास होता है कि यह कुछ है उसके बाद दूसरे-तीसरे क्षणो मे वह वस्तु किस प्रकार की है ? कैसी है ? क्या है ? आदि विशेष प्रकार गे जानती है। इसी क्रम को निराकार उपयोग (दर्शन) आर साकार उपयोग (ज्ञान) कहा जाता है । सामान्य ने विशेष तक पहुँचने का समग बहुत ही अन्प होता है ।
यहां जाननेतना द्वारा गुद्ध आत्मा या परमात्मा के विषय में जानकारी करने हेतु स्व का उपयोग स्व में करना होता है । वस्तुन इसी स्थिति का नाम जानचेतना है। ऐसी ज्ञाननेतना वीतरागगाव की या गुद्ध आन्मस्परा की एक पवित्रधारा हे। बानचेतना गे साधा अन्य विनसो को छोट कर मसार से परामुख हो कर यानी बहिर्मुशी न रह कर अन्तर्मुगी बन जाता