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अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा
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अर्थ नाममात्र (कहने भर) का अध्यात्म, स्थापनाभर का अध्यात्म तथा अध्यात्म के ज्ञाता कामृत शरीर जहाँ छूटा है, वह स्थान-विशेष द्रव्य-अध्यात्म इन तीनो प्रकार के अध्यात्मो को छोड़ो, जिससे निज आत्मगुणो की साधना होती हो, ऐसा भाव-अध्यात्म हो तो उसमे जुट पडो, उसी की धुन मे लग जाओ।
भाज्य
अध्यात्म . कौन-सा हेय, कौन-सा उपादेय ? श्रीआनन्दघनजी ने इसमे और अगली गाथाओ मे 'अध्यात्म का सागोपाग विश्लेपण करके हेय और उपादेय का विवेक बताया है।
जहाँ अध्यात्मशब्द की या आत्मा-आत्मा की केवल रटन हो, उसका कोई अर्थ समझ मे न आता हो, नाममात्र का अध्यात्म हो, यानी 'अध्यात्म' की भावना से रहित किसी जीव या पुद्गल का नाम 'अध्यात्म' रख दिया जाय तो ऐसे नाम-अध्यात्म से आत्मसिद्धि नहीं होती। अत वह त्याज्य है। इसी प्रकार किमी कागज पर 'अध्यात्म' शब्द लिख दिया जाय या अध्यात्म शब्द का कोई कल्पित चित्र या मूर्ति बना कर अध्यात्म की स्थापना कर दी जाय, उसमे अध्यात्म का कोई गुण नहीं होता। ऐसा स्थापनाअध्यात्म भी त्याज्य है। अध्यात्म के नाम से जहाँ हठयोग की रेचकपूरक आदि क्रियाएं करके अध्यात्म का प्रदर्शन किया जाता हो, आत्मा की अन्तरवृत्ति जरा भी सुधरी न हो, वहाँ द्रव्य-अध्यात्म है, अथवा शुष्क आध्यात्मिक ग्रन्थ समझेबूझे विना पढने-बोलने वाला उपयोगशून्य वक्ता भी द्रव्य-अध्यात्म है, अथवा अध्यात्मज्ञाता के मृत गरीर को या जहाँ उसका शरीर छूटा है, उस स्थान को अध्यात्म कहना द्रव्य-अध्यात्म है। यह भी आत्मस्वरूप की साधना मे उपयोगी न होने से त्याज्य है। नाम, स्थापना और द्रव्य, ये तीनो प्रकार के अध्यात्म जानने योग्य है, अपनाने योग्य नहीं, छोडने योग्य है । ये तीनो भावअध्यात्म मे सहायक न हो तो त्याज्य हैं।
अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप यह है कि जो अपने आत्मगुणो को प्रगट करे, सावे, वही भाव-अध्यात्म है । 'आत्मानमधिकृत्य वर्तते इत्यध्यात्मम्' इम व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा के स्वरूप को ले कर प्रवृत्त हो, वह अध्यात्ग है। ऐगा भावअध्यात्म, जिगगे निजगुणो की साधना हो, भात्मा