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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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मे कही गई है । जत भावपूजा मे चित्त के समस्त विकार, दुश्चिन्ता, दुर्व्यान, आदि काफूर हो कर उसमे प्रसन्नता, स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता पैदा हो जाती है, जिसने दुर्भाग्यदूर हो कर मद्भाग्य मे परिणत हो जाता है, दु स्थिति, दुश्चिन्ता और दुर्गति मिट जाती है और सुस्थिति, निश्चिन्तता और सुगति प्राप्त हो जाती है, परम्परा से कर्मक्षय होने मे मुक्ति प्राप्त हो सकती है ।
उपर्युक्त नथ्यो वे प्रकाश मे मतरह प्रकार की भावपूजा का अर्थ है--१७ प्रकार का असयम छोड कर आत्मा के शुढ सयमगुणो को अपनाना । इक्कीस प्रकार की भावपूजा का अर्थ है--२१ प्रकार के मवलदोपो का, त्याग करके आत्मा के अनुजीवी गुणो की आराधना करना । इसी तरह १०८ प्रकारी भावपूजा भी पचपरमेष्ठी के १०८ गुणो की आराधना करने से होती है । अथवा १७ प्रकार का मयम-पालन करने का पुस्पार्थ करना तथा बारह प्रकार के तप और नौ प्रकार की ब्रह्मचर्यसमाधि मिल कर २१ गुणो की आराधना करने का पुरुपार्थ करना भी भावपूजा है ।
पूर्वोक्त गाथाओ मे अगपूजा और अग्नपूजा, यो दो प्रकार की द्रव्यपूजा और अनेक प्रकार की भावपूजा, इस तरह पूजा के तीन प्रकारो का वर्णन किया गया, अब अगली गाथा मे चौथी प्रतिपत्तिपूजा का वर्णन करते है
तुरियभेद पडिवत्तिपूजा, उपशम-क्षीरग-सयोगी रे । चहा पूजा इम उत्तरज्झयणे, भाखी केवलभोगी रे।
सुविधि ॥७॥
अर्थ परमात्मपूजा का चौथा प्रकार प्रतिपत्तिपूजा है। जो उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली नामक ११वें १२वें और १३वें गुणस्थान मे होती है । यो चतुर्य प्रकार की पूजा श्रीकेवलज्ञानी ने उत्तराध्ययनसूत्र मे बताई है।
भाष्य
परमात्मपूजा का चौथा प्रकारः प्रतिपत्तिपूजा परमात्मपूजा के तीन प्रकारो का वर्णन पहले की गाथाओ मे कर चुके
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