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अध्यात्म-दर्शन
भाष्य
परमात्मपूजा का रहस्य जान कर उसे क्रियान्वित करना है इस नाथा मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मपूजा के बहुन गे प्रकार और उसके रहस्य के ज्ञान पर बहुत जोर दिया है। नाय ही उन लोगो को चेतावनी भी दी है कि केवल पूजा के रहस्य को जान लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसमे लौकिक और लोकोत्तर दोनो प्रकार के मुख को देने वाली जिनानायुक्त गुभक्रियाएँ है, उन्हे अवश्य करना है। जिन क्रियाओ से आत्मा अपने गुढ म्यरूप मे रमण कर सके, जो त्रिया आत्मा को स्वगुणो की ओर ले जाने वाली है, आत्मा का विकास करने वाली है, वे ही निया लौकिक और लोकोनर मुख देने वाली है। जिनसे आत्मा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारो की
और जाती हो, जिनसे अपना और मरो का अहित होता हो, जो किया मनुष्यजीवन मे वैर-विरोध-बर्द्व क, हिमा, असत्य आदि बटाने वाली हो, वे लोक-परलोक दोनो जगह दु सदायिनी है, लोकोत्तर मुख तो उनमे मितता ही कैसे ? परन्तु जिस करणी से दूसरों को क्षणिक सुख मिलता हो, मगर अपने आप को जन्ममरण के चक्र मे पड़ पर दुख पाना पड़ता हो, अथवा अपने को क्षणिक नुख प्राप्त होते हुए भी दुसरो को दुख में पड़ना पडता हो, (जैसेपूजा के लिए पशुवलि या गराव आदि चटाना) वह करणी उभयतुखदायक नहीं है, इसलिए उसे शुभकरणी नहीं कहा जा सकता । अथवा जिस जिया ने इहलोक मे तो नाशवान ऐन्द्रियक सुखो की प्राप्ति हो जाय, परन्तु परलोक का अथवा लोकोत्तर मुख का मार्ग उमसे अवरुद्ध हो जाय, उमे भी सर्वमुखदायक - शुभकरणी नहीं कहा जा सकता। जिस करणी से कालिक और त्रैलौकिवा गुख की प्राप्ति हो, उगे हम सर्वसुखदायिनी गुभकरणी कह सकते है । ऐसी शुभकरणी से भव्य भक्तजन अवश्य ही मच्चिदानन्दमय पद की भूमिका या भूमि (स्थान) प्राप्त कर सकेगा।
___इस गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि प्रभुपूजा के ज्ञाता को केवल जान कर ही नहीं रह जाना चाहिए । अगर वह केवल जान-समझ कर भी चुपचाप बैठ जाता है, अवश्यकरणीय शुभक्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, तो वह इस हाय मे आई हुई वाजी या अमूल्य अवसर को खो देगा, इस जिंदगी से