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अध्यात्म-दर्शन
की सच्ची करुणा है। दूसरी ओर परपदार्थों के नाथ सम्बन्धों को हटाने की कठोरता होने से, परपदार्यों को अपने मे हुआ वियोग-दुध देग कर भगवान प्रसन्न होते है और मामारिक जीवो के शुभाशुभ परिणामो को अपने ज्ञान में देखते ह, पर दर्पणवन् तटस्थ रहते है, ममता रखते है। इन प्रकार वीतराग परमात्मा मे करुणा तीदणता, और उदानीनना इन तीनो परम्पर विरोधी गुणो का गमावेश हो जाता है।
अगली गाया मे फिर इन्ही तीन गुणो की तीनरी दृष्टि मे परम्पर मगति विठाई गई है.
अभयदान' तिम लक्षरण करुगा, तीक्षगता गुणभावे रे। प्रेरक विरण कृति उदामोनता, इम विरोध मति नावे रे ॥
शीतल ॥४॥
अर्थ
इसी प्रकार जीवो को भयरहित करने के लिए जीवनदान (अथवा उपदेशदान) देना परमात्मा मे करुणा का लक्षण है। उनके गुग मे और भावी में तीक्ष्णता है, किसी प्रकार की प्रेरणा के बिना प्रनु मे स्वाभाविकरप से रिया होती रहती है, इसलिए उदातीनता है । इस तरह विचार करने पर विरोधो की तरह दिखाई देने वाले तीनो गुणो मे कोई भी विरोध की बुद्धि नहीं पैदा होती।
भाष्य इम गाया मे भी एक अन्य दृष्टि में प्रभु मे तीनो विरोधी गुणों का अस्तित्त्व सिद्ध किया है। जीवमात्र को जन्म, जग, मृत्यु, रोग, शोक आदि का भय रहता है । उस भय मे छुटकारा दिला कर जगय करने का मूत हेतु है-ज्ञान । अभय का ज्ञान देना ही प्रभु की करुणा है। द्रव और भाव ने प्रभु नागारिक जीवो को निर्भयता का दान देते हैं। वे कहते है-किसी सामारिक पदार्य मे डरो मत। तुम्हारी आत्मा स्वय भययुक्त-निर्मय है, इप्स प्रकार मामारिक पदार्थो मे भय न पाने देना-द्रव्य-अभयदान है, और मसार
१. किसी-किसी प्रति मे 'तिम लक्षण करुणा' के बदले 'ते मलक्षय करुणा'
है। वहाँ 'कर्मरूपी मैल के क्षय का हेतुप उपदेश ही करणा है' यह अर्थ सगाना। .